अनंत बनाम शून्य
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काम और धन
सभी को चाहिये अनंत,
पर नहीं मिलता
किसी को भी अनंत
अनंत नहीं मिल पाता
अनंत कोशिशों से भी
इसीलिये बना रहता
हर समय विषाद हैǃ !
अनंत में विषाद
शून्य में हर्ष
अनंत खंड—खंड
शून्य अखंड
अनंत नश्वर
शून्य शाश्वत
अनंत अपूर्ण
शून्य पूर्ण
अनंत में अभाव
शून्य में भाव
अनंत मिथ्या
शून्य सत्य
अनंत व्याधि
शून्य उपचार
अनंत स्वप्न
शून्य जागरण
अनंत सुदूर
शून्य सन्निकट
अनंत दुर्लभ
शून्य सुलभ
अनंत असाध्य
शून्य साध्य
अनंत डाँवाँडोल
शून्य अटल
अनंत में प्यास
शून्य में तृप्ति
अनंत में संदेह
शून्य में विश्वास
अनंत में उपद्रव
शून्य में शान्ति
अनंत में कोलाहल
शून्य में मौन
अनंत में संघर्ष
शून्य मे विराम
अनंत में वैमनस्य
शून्य में सद्भाव
अनंत अनिश्चित
शून्य निश्चित
अनंत में क्षणिक सुख
शून्य में चिर आनंद
अनंत में लगते ग्रहण
शून्य में मिलता मोक्ष
अनंत में हैं ‘ब्लैक होल्स’
शून्य स्वयं कवच गोल
अनंत में विस्फोटों का शोर
शून्य के सन्नाटे में नाद
अनंत में संसार
शून्य में अध्यात्म
अनंत में विघटन
शून्य में संघठन
अनंत में घोर अंधकार
शून्य में दिव्य प्रकाश
अनंत में मिलता न्यूनतम
शून्य में मिलता अधिकतम
अनंत में शून्य आनंद
शून्य में अनंत आनंद
अनंत में प्रलय
शून्य में सृजन
………………….
………………….
आदि में
अनंत निकला है शून्य से
और अंत में
अनंत समायेगा शून्य में ही
इसलिए
अनंत त्याज्य है
शून्य ही ग्राह्य है
क्योंकि
शून्य में उमंग है !
उमंग में आनंद है !!
आनंद परमानंद है !!!
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— गुमनाम कवि (हिसार)
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आपने अनन्त को नकारात्मक रूप में प्रयोग किया है….मुझे इतना ज्ञान नहीं है…पर मैंने अनन्त को सकारात्मक या माइथोलॉजी के रूप में प्रयोग होते देखा है….अनन्त का भावार्थ जो मुझे समझ आता है वह जिसका अंत नहीं…जब अंत ही नहीं पता वह किसी में समां जाए या किसी से प्रकट हो यह भी हम कैसे ज्ञात कर सकते….जैसे संस्कृत का एक श्लोक है…जो हर यज्ञ के बाद बोला जाता है….”ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥” कि जो पूर्ण से निकला है वह पूर्ण ही होगा……ऐसे ही अनन्त अगर प्रकट होगा तो अनन्त से ही होगा….हाँ माइथोलॉजी की अनभूति अलग विषय में परिभाषित करती है….और माइथोलॉजी में शून्य को लें तो वह एक निर्विचार चैतन्य आत्मा की बात करती है….अपने अपने मत हैं….अनभूतियों भी अलग अलग ही होती हैं सब की …
मेरा यह अपना मत है किसी चीज़ को गलत सही ठहराना नहीं…..विचार हैं बस…..अन्यथा न लें….
मै भी शर्मा जी की बात से सहमत हूँ!
हार्दिक आभार संग सादर नमन ǃ
सुप्रभात माननीय babucm जी, आपकी विस्तृत समालोचनात्मक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार । अन्यथा लेने का तो प्रश्न ही नहीं है । आपका कहना अपनी जगह सर्वथा उचित है । विनम्र निवेदन यह भी है कि मैं बहुत ही अल्पज्ञ हूँ और यह तथ्य मुझे जानने वाले सभी अच्छी तरह जानते भी हैं । माँ शारदे की असीम कृपा से गुमनाम मन में स्वतः प्रस्फुटित होने वाले भावों की ही मैं प्रायः अकविता / गद्य काव्य रचना के माध्यम से अभिव्यक्ति किया करता हूँ। मुझे यह स्वीकारने में भी कोई संकोच नहीं है कि मेरी रचना में मेरी अल्पज्ञता/अज्ञानता की वजह से भावों का भटकाव या कमियाँ/त्रुटियाँ भी हो सकती हैं । मुझे न तो साहित्य का ज्ञान है और न ही वेद-पुराणों, अध्यात्म या दर्शन आदि का । मुझे काव्य की विभिन्न विधाओं का ज्ञान भी नहीं है और काव्य रचनाओं के मर्म तक पहुँच पाना भी मेरे सामर्थ्य में नहीं है। यह भी सच है कि बहुत बार मुझे अपनी रचना विद्वान गुणीजनों की व्याख्याओं के बाद ही समझ आती है । प्रस्तुत रचना को पूरी तरह समझ पाने में मैं आज भी असमर्थ ही हूँ। हाँ, फेसबुक पर ‘कवितालोक’ के संस्थापक श्रद्धेय ओम नीरव जी एवं माननीय विकास नेमा जी की निम्न प्रतिक्रियाओं ने इसे समझने में मेरी मदद की है –
Om Neerav शुन्य और अनंत का तुलनात्मक अध्ययन अद्भुत है और द्वैती अभिव्यक्ति उससे भी अद्भुत है ! अनंत के ऊपर शुन्य के वर्चस्व को स्थापित करते हुए अंततः शुन्य में परम आनंद की अनुभूति आपकी रचना का अद्वितीय पक्ष है ! वास्तव में शुन्य और अनंत दोनों एक ही हैं , बीच में जो कुछ है वह सापेक्ष है ! शुन्य और अनंत की दो स्थितियां ऐसी हैं जहां तुलना करने के लिए कुछ रह ही नहीं जाता , सापेक्षता समाप्त हो जाती है और निरपेक्षता की स्थिति में शून्य और अनत दो नहीं रह जाते अपितु एक हो जाते हैं ! लेकिन तब दृष्टा का अस्तित्व अलग संभव नहीं है क्योंकि शुन्य या अनंत से अलग कुछ बचता ही नहीं है ……. शुन्य को शुन्यमय होकर या अनंत को अनंतमय होकर ही अनुभव किया जा सकता है ! आपके दार्शनिक चिंतन की दिशा और अभिव्यक्ति आपकी लेखनी को अभिनंदनीय बनाती है ! सप्रेम ,
Om Neerav शून्य ग्राह्य है
क्योंकि
शून्य में उमंग है !
उमंग में आनंद है !!
आनंद परमानंद है !!!……. बहुत अनुपम सुखद परिणति !
Vikas Nema – बहुत गहरी और सारगर्भित बात काव्याकार होकर आई है. बुद्धिज़्म में शून्यवाद और तांत्रिक-साहित्य में महाशून्य की अवधारणा एक गुह्य आयाम है जिसे साहित्यिक मनीषा से मानसिक रूप से विवेचित किया तो जा सकता है लेकिन ठीक-ठीक उपलब्धि साधन-संभूत मानसेतर प्रज्ञा से ही की जा सकती है.तथापि,गहन और गुह्य भावों को,रहस्य को कविता का—अच्छी कविता का—- जामा देना कोई सरल कार्य नहीं और इस कारण अपनी प्रोफाइल के जरिये से स्वयं शून्यवादी गुमनाम कवि का अभिनन्दन है!
एक बात यह कि वास्तव में,मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार,अनंत शून्य का विरोधी नहीं है,बौद्धों का शून्य या तंत्रोक्त महाशून्य वास्तव में वह गुह्य महाप्राचीर है जिसमें अवस्थान करके योगी इसके अंतर में गुप्तत: विद्यमान एक-या-अनंत अनिर्वचनीय,अबोध्य सत्ता का संधान पाता है,ऐसा आचार्यजन कहते हैं.यह शून्य निस्संदेह बहुत उच्च स्थिति है और साधकोत्तम तक के लिए दुर्लभ है,इसके लिए जगन्माता की अखंड महाकृपा चाहिए.आपने जो लिखा है,उसमें गुप्त रूप से यह सूत्र है,लेकिन वह सबके बोध्य नहीं हैं,अभी इतना ही—-जय हो.
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धन्यवाद