बिन मंजिल का राही
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पता नहीं कौन था वह
जो चला जा रहा था
मुझसे आगे आगे
बिना सोचे
बिना विचारे
बिना देखे
आगे पीछे
दायें बायें
चला जा रहा था वह
अपनी ही धुन में
उस अंतहीन खतरनाक रास्ते पर
जो नहीं जाता किसी मंजिल तक
वह कौन था
अंततः एक दिन
खुल गया उसका राज
मालूम तब हुआ
जब निकले
मेरे शरीर से प्राण और
उसको गिरते देखा मैंने ǃ
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—गुमनाम कवि (हिसार)
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Aapki kalpanaye behtarin hai .
हार्दिक आभार संग नमन ǃ
Bhai kya kamaal likhte ho….wonderful…
हार्दिक आभार संग नमन ǃ
Nice composition……!
उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार संग नमन !
बेहतरीन रचना ………………
हार्दिक आभार संग सादर नमन माननीय ‘मधुकर’ जी ǃ