सर्वहारा
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सूखा है तन
भूखा है तन
औऱ बेचैन मन.
बहते पसीने में
मुश्किल से जीने में
कितना रूखा है तन
और बेचैन मन
श्रमजीवी श्रमिक
जो पाता पारिश्रमिक
है कितना बड़ा धन
और बेचैन मन.
उसके लहू का रंग
कौन कर रहा बदरंग
पूछता आम जन
और बेचैन मन.
रूह को तड़पता देख जाता नहीँ
वो अपना ही है
पर कोई आगे आता नहीँ
है ये कैसी जलन
और बेचैन मन.
ख्वाहिशें हर घर की
पूरा करे
इतनी जुर्रत कहाँ कुछ अधूरा करे
एक पल ही सही मिटा लेता थकन
और बेचैन मन
जर्रा जर्रा ऋणी है
उसके उपकारों का
कैसे कटता है दिन
बेसहारो का
वेदना में ही ओढ़ लेता कफ़न
और बेचैन मन..
!
!
??डॉ सी एल सिंह ??
दिल को छूती एक प्यारी सी रचना l लाजवाब l
प्रशंसा का एक बूँद मेरे लिये अमृत है
धन्यवाद सर जी
प्रशंसा का एक बूँद मेरे लिये अमृत है
धन्यवाद
जितनी भी तारीफ की जाये उतनी कम……..बहुत बढ़िया सर………
अंतर्मन से साधुवाद …..
बहुत खूबसूरत चितन……….!!
अच्छे भावों में लिखी गयी रचना………….बहुत खूब………
बहुत ही बढ़िया ……………… खूबसूरत रचना !!
सर्वहारा समाज के लिए चिन्तन करती एक अत्यंत खुसुरत रचना!
Bahut hi khoobsoorat….antim pad dil ko choo gaya…..
सत्यपरक भावुक रचना. सोचने पर मजबूर करती है .