मन की आँखें खोल रे बन्दे,
मन की आँखें खोल|
जो कुछ होए इस दुनियाँ में,
ईश्वर मर्ज़ी होए|
मन की आँखें खोल रे बन्दे,
मन की आँखें खोल|
फिर क्यों तू चिंता में डूबा,
जब बस में कुछ न है|
मन की आँखें खोल रे बन्दे,
मन की आँखें खोल|
अपना कर्म करले बन्दे,
जो जग में सुख होए|
मन की आँखें खोल रे बन्दे,
मन की आँखें खोल|
जो कुछ होए इस दुनियाँ में,
ईश्वर मर्ज़ी होए|
मन की आँखें खोल रे बन्दे,
मन की आँखें खोल|
न कोई ऊँचा न कोई निचा,
सब कोई एक समान|
मन की आँखें खोल रे बन्दे,
मन की आँखें खोल|
फ़िर क्यों भेद करे रे प्राणी,
सब को मान समान|
मन की आँखें खोल रे बन्दे,
मन की आँखें खोल|
जो कुछ होए इस दुनियाँ में,
ईश्वर मर्ज़ी होए|
मन की आँखें खोल रे बन्दे,
मन की आँखें खोल|
“अनु माहेश्वरी ”
चेन्नई
जीवन का सत्य है यह…………..अच्छे भावों में लिखी गयी रचना………….लेकिन व्यक्ति सबकुछ समझ कर भी नहीं समझना चाहता है. सुंदर रचना………….कुछ ऐसे ही भावों की एक रचना मैंने आज दी है “मौन खड़ा रह यूँही” पढ़ें और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें.
Thanks Vijayji. sahi kaha aapne “lekin vyakti samajh kar bhi nahi samajhna chahta”.
bahut khubsoorat rachna…………………….
Thank You, Maniji.
Bahut hi khoobsoorat…….
Thank You, Sharmaji.
अनु महेश्वरी जी, मन की आँखे खो, बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ सजाई है आपने। उच्च नीच का भेदभाद, ये लकीरे मन की अन्धकार की उपज है। रचना की प्रशंसा में भूरि भूरि साधुवाद
Thank You, Surendraji,
सत संगति विचारो को सहेजे खुबसुरत कर्ण प्रिय गुनगुनाने योग्य गीत रचना ।
Thanks Nivatiyaji.