आत्म दर्शन के लिए अहं को त्यागना ज़रूरी है
पर इसके फंदे में तो फँसी हुई ये दुनियाँ पूरी है
इससे मुक्ति का कोई जादुई हल ना मिलता है
अभ्यास से ही ये मन अहं रहित हो खिलता है
गुरु हम जब भी कोई इस संसार में बनाते हैं
उसके चरणों में सारा अहं खुद से छोड़ आते हैं
उसके बाद आत्म उन्नति का मार्ग मिलता है
जिस पर चलकर इंसान पवित्र हो निकलता है
शिशिर मधुकर
अहम ही इन्सान के जीवन में वहम पैदा करता है। विकास के राह में रोड़ा खड़ा करता है। जब ज्ञान रुपी गुरू का प्रकाश मिलता है तब कही, अहम टूटता है। शिशिर सर जी अत्यंत ही सरगर्भित रचना गुरु पूर्णिमा के अवसर पर!
हार्दिक आभार सुरेन्द्र ………..
गुरु के बिना जीवन में अंहकार का अँधेरा होता है जिसे गुरु अपने ज्ञान से दूर करता है | भगवान को मनाना हो गुरु हल बता देता है और गुरु को मनाना हो तो उसका हल भगवान के पास नहीं |…….बहुत बढ़िया शिशिर जी…………………
हार्दिक आभार मनिंदर …………
सुन्दर रचना अच्छे भावों के साथ लिखी गयी…………परन्तु आज के परिवेश में सच्चे गुरुओं की नितांत कमी है, आप गुरु समझ कर जिनको पूजते हैं, कल को वो कुछ और ही निकलते हैं. आज अधिकांश गुरुओं को आप देख लें वैभव में लीन पाये जाते हैं. एक गुरु ने हमें निम्न ज्ञान भी दिया है………..
गुरु गोविन्द दोउ खड़े कiके लागूं पाँय, बलिहारी गुरु आपनो गोविन्द दियो बताये.
विजय आपने सही कहा लेकिन बात आत्मसाक्षात्कार की है तो अगर गुरु पूर्ण नहीं है तो भी उसके माध्यम आत्मोन्नति संभव है. वैसे पूरी सिख पंथ (वास्तव में शिष्य को पंजाबी में सिख कहते है ) इसी दर्शन पर आधारित है.
मैंने सिख पंथ की गुरुओं की बात नहीं की, सिर्फ गुरु की लिए लिखा है. मेरे घर से चाँद फैसले पर ही गुरु गोविन्द सिंह का जन्मस्थल गुरुद्वारा है जहाँ मैं अक्सर सपरिवार जाया करता हूँ.
गुरु पूर्णिमा पर आपकी विशेष प्रस्तुति मंत्रमुग्ध कर दिया
धन्यवाद डॉ. सिंह ……………
मन मोहक बहुत बढ़िया आदरणीय शिशिर जी…………………
हार्दिक आभार अभिषेक ……………
सच कहा है शिशिर साहब बिना अहम का त्याग किये आत्म दर्शन हो ही नहीं सकते बहुत खूब l एक एक शब्दों में सच्चाई झलकती है l
ह्रदय से शुक्रिया राजीव जी…………
Bahut hi khoobsurat poem…Sir..
Thanks a lot Dr. Swati ………
गुरु पूर्णिमा पर पावन संदेश देती सुन्दर कृति!
मीना जी आपके शब्दों के लिए ढेरों शुक्रिया
गुरु कैसा भी हो यदि आप उसके प्रति सात्विक भाव से समर्पित है अवश्य ही आपको उसका फल प्राप्त होता है…….ये विषय अलग है की कौन किस दिशा में किस प्रवृति को महत्त प्रदान करता है….वह उसके कर्म पर निर्भर करता हैा …………गुरु सैदव गुरु होता है…..उचित सम्मान का अधिकारी भी ……..अति सुन्दर शिशिर जी !!
निवातियाँ. जी आपकी विवेचनात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
बहुत खूब शिशिर जी। गुरु की महिमा वाकई अपरंपार है। आज के परिप्रेक्छ में गुरु का मतलब मात्र टीचर या साधू ही नही है, बल्कि वह हर कोई चाहे वह बॉस हो या दोस्त हो या रिश्तेदार , वह हर कोई जो समय समय पर हमारा उचित मार्गदर्शन करता है। वह ही गुरु है।
मञ्जूषा जी आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक शुक्रिया
गुरु बिना ज्ञान कहाँ, चाहे वो शैक्षणिक हो या अध्यात्मिक हमेशां गुरु की जरूरत पड़ती है जब ज्ञान हो जाता है तो अहम अपने आप छूट जाता है और आत्म दर्शन हो जाता है ……………………………. लाजवाब मधुकर जी !!
सर्वजीत आपकी खूबसूरत प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार
मधुकरजी….माफ़ कीजिए मुझे…मैं पहली बार आपकी रचना के साथ जुड़ नहीं पा रहा हूँ…आपने बहुत सही लिखा की जादुई हल नहीं है….बिलकुल सही है…आप सही कहते हैं अभ्यास से मन अहम रहित होता है….पर आपकी आगे पंक्ति से जुड़ नहीं पा रहा…. जब आप लिखते की “उसके चरणों में सारा अहं खुद से छोड़ आते हैं” जब खुद ही सब छोड़ दिया तो गुरु के चरणों में ही क्यूँ…अभ्यास से हम खुद ही छोड़ के शान्ति प्राप्त कर सकते हैं….आत्म दर्शन प्रापत कर सकते हैं जो आपकी पहली ही पंक्ति है…..फिर गुरु क्यूँ….. मेरी अशिष्टता को कृपया माफ़ कीजिए…
बब्बू जी आपकी आलोचना का स्वागत है. आपका प्रश्न उचित है. लेकिन मेरी बात भी सही है. जब हम गुरु के चरणों में अहम खुद से छोड़ आते है तब हम ईश्वर के सबसे करीब होते है लेकिन उस अवस्था को मोह माया के कारण लम्बे समय
तक नहीं रख पाते. निरंतर अभ्यास से ही इस अवधी को लंबा किया जा सकता है जिसमे आप स्वयं के सबसे करीब होते है. यदि ऐसा ना होता तो सिख पंथ जो इसी दर्शन पर आधारित है के सभी मानने वालों को आत्म दर्शन हो गए होते.
हिन्दुओं में प्रचलित ध्यान में समाधी की स्थिति भी निरंतर अभ्यास से ही आने की बात भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में की है.