हु मैं रुपैया कहने को ताकतवर,
पर चलता मैं औरो की मर्ज़ी पर|
रूप अनेको मेरे,
कभी बन जाता काला,
कभी बन जाता सफ़ेद|
वजह भी बनता मैं ही,
कभी बाल मजदूरी की,
अभिमान या निराशा की|
नाम अनेको मेरे,
कभी रिश्वत,
कभी तनख्वाह,
कभी दान,
कभी दक्षिना,
कभी फीस,
कभी पेंशन|
बिन मेरे कोई न होता काम,
हु मैं झगड़े की जड़ भी,
आए दूरियां रिश्तो में भी|
पर दोषी मैं नहीं,
मेरा मुझपे अधिकार नहीं,
कभी कहा किसी ने सुनी मेरी|
कोई मुझे तीजोरी में रखते,
कोई बैंक के खाते में,
न कोई मुझे पूछता,
मैं कैसे खर्च होना चाहता,
कभी कहा किसी ने सुनी मेरी|
ड्रग्स और मदिरा में मुझे उड़ाते,
हॉस्पिटल भी पहुंच जाते,
फ़िर इलाज में,
मैं ही काम आता,
पर कहाँ सुधरते लोग,
कही फ़िज़ूल का बहा रहे,
शादियों पे दिखावा कर|
पर मेरी आत्मा तब मर जाती,
जब किसी बेटी को,
दहेज़ की बेदी पर,
भेट चढ़ते देखता,
तब मैं सोचता,
काश मैं रूपया ना हो,
कागज़ ही रह पाता|
“अनु माहेश्वरी ”
चेन्नई
बेहद खूबसूरत रचना ………………व्यंग भी बहुत अच्छा और मार्मिक है
Thank you, Shishirji.
बेहद खूबसूरत कटाक्ष……..
Thank You, Sharmaji.
बहुत खूब ************ अनु जी ।
Thanks Kajalji.
अनु जी बहुत जी बढ़िया रचना………..काबिलेतारीफ
Thank You, Maniji.
रूपये के प्रत्येक पहलू को छूती खुबसुरत ऱचना ।।
Thanks nivatiyaji.