उतार चढाव देखते समय का, ढलती उम्र का आया पड़ाव |
किन्तु अब तक समझ न पाया, किधर है इसका बहाव || 1 ||
कोई कहता इसे पंक्षी, कोई कहता इसे चक्र |
अनुकूल होने पर देता खुशियाँ, प्रतिकूल हो तो रचे कुचक्र || 2 ||
किसी के लिए यह है सरिता, जिस पर चलती जीवन की नाव |
किनारे तक पहुंचा कर ही देती, जीवन को अंतिम पड़ाव || 3 ||
कोई करता तुलना भगवान राम से, जो इसके प्रवाह को ना सके रोक |
राज त्याग कर वन-वन भटके, पितृ निधन का लिए शोक || 4 ||
कोई पांडवों का द्रष्टान्त बताता, जो गये जुएँ में सब कुछ हार |
शोकमग्न हो दर-दर भटके, द्रौपदी के अपमान का लिए भार || 5 ||
कोई कहता यह उपचारक है, पर्वत समान दु:ख लेता हर |
होते ही इसके अनुकूल, जीवन में जातीं खुशियाँ भर || 6 ||
विविध प्रकार से हुई व्याख्या, कोई पकड़ ना पाया इसका सार |
सबको यह भरमाता है, प्रतिपल परिवर्तित करता व्यवहार || 7 ||
पर एक बात पर सब सहमत, की यह अति बलशाली है |
किसी के घर में देता खुशियाँ, करता किसी की झोली खाली है || 8 ||
जीवन से इसका सम्बन्ध, स्वीकार सभी जन करते हैं |
बिना समय ना जीवन कटता, सब ज्ञानीजन कहते हैं || 8 ||
संसार में कहते सुना अक्सर, कब बीता समय ना पता चला |
जब आये दुर्दिन, तब मानव ढूंढने चला भला || 9 ||
मन्दिर मस्जिद गिरजाघर में, नित्य हाजिरी देता है |
प्रार्थना मन्नत और दुआओं से, शांति मन को देता है || 10 ||
कोई मग्न मस्ती में इसकी, किसी को पल-पल भारी है |
कोई विक्षिप्त हो घूमता जग में, क्योंकि मति मारी जाती है || 11 ||
जिसके रोगी को डाक्टर कहता, चार घंटे बाद ही कुछ कह पाऊँगा |
उससे पूछो जाकर जो सोच रहा, चार घंटे कैसे बिताऊंगा || 12 ||
चार जन्म को याद कराते, किसी को केवल घंटे चार |
किसी के घर में सजती महफिल, मौज उड़ाते मिल कर यार || 13 ||
चार घंटे बीते दोनों के, एक ने कटे रो रो कर |
दूजे ने उड़ाया मौज खूब, आनन्द मनाया जी भर कर || 14 ||
अब इसे कहूं समय का पंक्षी, या जीवन सरिता पर चलती नाव |
या यह चक्र समय का है, जिसका होगा दूर पडाव || 15 ||
यह सत्य मानना पड़ता है कि, मानव पर समय का चलता राज |
अनुकूल समय करता काज सफल, प्रतिकूल समय करता अकाज || 16 ||
जीवन का एक-एक पल, इसके प्रभाव से चलता है |
समय से ही पौ फटती है, समय से ही दिन ढलता है || 17 ||
अगले पल जो होना है, उसे न कोई बदल सकता |
इसकी शक्ति के सन्मुख, नतमस्तक ही होना पड़ता || 18 ||
गति है इसकी निर्धारित, ना घटती है ना बढ़ती है |
यह होता घटना का साक्षी, जो इसके आगे घटती है || 19 ||
अनुकूल होता समय जब, तब यह पंक्षी बन जाता है |
प्रतिकूल होते ही इसके, यह कालचक्र कहलाता है || 20 ||
हाथ में इसके होने पर, सदुपयोग न जो कर पाता है |
इसके बीतने पर वह मानव, हाथ मल कर पछताता है || 21 ||
इसकी शक्ति है अनन्त, इसके आगे हो नतमस्तक |
किस क्षण यह क्या दिखलाये, बन कर आये एक नव कौतुक || 22 ||
अब या हो यह पंक्षी, या हो सरिता पर तैरती नाव |
या जीवन रथ की हो यह धुरी, जिस पर मानव ने रखे पांव || 23 ||
सदुपयोग यदि करे मानव, तो क्या पड़ता अन्तर इससे |
जो इसको स्वीकारे, वह पाता किनारा इस जग से || 24 ||
समय सदा होता बलवान, मानव की नहीं कोई बिसात |
सदुपयोग यदि होगा इसका, देगा यह इक नव सौगात || 25 ||
अखिलेश प्रकाश श्रीवास्तव
Bahut sahi…….
धन्यवाद शर्मा जी, यह आप जैसे प्रशंसकों की ही प्रेरणा है
समय पर अच्छी रचना. समय की ताकत पर मेरे द्वारा पूर्व में लिखी रचना “वक्त” भी पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया अवश्य भेजें .
धन्यवाद शर्मा जी
समय पर खूबसूरत रचना…………….
अखिलेश जी वक्त की पहचान करना सिखाती अत्यंत खुबसूरत रचना