अन्धकार आज फिर छाया है ,हर तरफ आक्रोश का साया है,
कहाँ छिप गया है वो उजाला, क्यों हर किसी को तड़पाया है….
हर कोई उलझा है अपनी उलझनों में,हर कोई दौड़ रहा है ज़िन्दगी की इस दौड़ में,
सवेरे से लेकर शाम तक जो दौड़ ख़त्म नहीं होती, गर रात ना होती तो रात में भी होती ,
क्या है वो सफलता चिन्ह जिस पर ये दौड़ ख़त्म होगी ,
अफ़सोस है मुझको, मैंने कभी नहीं सुना इस दौड़ में आज तक कोई जीत पाया है…
गरीबी और भुखमरी की जंजीरों में घिरे हैं देश विदेश,
पर सफ़ेद पोशो को ज़रा सा भी नहीं हैं खेद,
क्योंकि उनके पेट भरें हैं और साथ में उनके पालतू जीवों के भी ,
मर रहे हैं लोग बिन पानी के ,
उस पर कोई नहीं है रोष ,
केवल परवाह है तो राजगद्दी की जिस पर आज तक कोई भी नहीं टिक पाया है ..
हर दिन आतंक और अपराधों की बढती हैं गिनतियाँ ,
हर दिन दहेज़ की आग में झुलसती नयी नवेली दुल्हनिया,
हर दिन बढती बेरोजगार की समस्या ,
हर दिन बढती सड़कों पर भिखारियों की संख्यां ,
हर दिन होती एक कर्मठ पत्रकार की हत्या,
हर दिन एक बेरोजगार नवयुवक,एक हारा हुआ किसान,
और एक भुखमरी से पीड़ित इंसान करने की सोचता है आत्महत्या ,
हर दिन बाज़ार में बिकती है सब्जी की तरह एक कन्या ,
हर दिन उठती हैं राज्य सभा और लोक सभा में इन सब समस्याओं पर अट्कलियाँ ,
परन्तु इन समस्याओं का समाधान ही नहीं हो पाया है …….
गम्भीरता की कमी पर सटीक कटाक्ष
बहुत सी ऐसी समाजिक समस्याएं हैं जिनका हल हम खुद कर सकते पहल करें तो…सरकार उसमें क़ानून बन सकती पर जब तक सोच हमारी नहीं बदलती तब तक वो नहीं हल होंगी…इस लिए सब कुछ सरकार करे हम अपने कर्त्तव्य से पल्ला झाड़ लेते हैं….हाँ सरकार को जो करना उसके लिए भी हम उत्तरदायी हैं की संज्ञान लें…पर पहल तो खुद को ही करनी है…..आप ने बहुत सही कटाक्ष किये हैं…..
Nice……………………………………….