शब्द जहां थोथे पड़ जाते हैं,
संवेदना जहां मर जाती है,
उस मोड़ पर आकर खड़े हो गए हम,
मनुष्यता जहां खो जाती है,
दर्द बयां करने से क्या होगा यहाँ,
मुरदों की ये बस्ती है,
लाशें बिकती हैं महंगी यहाँ,
जिन्दों की जाने सस्ती हैं,
इंसान रेंगता यहाँ,
दो हाथों पैरों पर,
सियार भेड़िये चलते दो पांवों पर,
अजब ये बस्ती है,
सांस लेने को अगर कहते हो ज़िंदा रहना,
तो हम ज़िंदा हैं,
पर, नहीं हमारी कोई हस्ती है,
सोच में जिनकी बसा शौचालय,
उन्हीं की आज हस्ती है
जो ज़िंदा हैं वो बोलेंगे,
जो बोलेंगे वो मरेंगे,
है ये रीत अजब,
पर, यही रीत आज चलती है,
अरुण कान्त शुक्ला
14/7/2016
अरुण कान्त शुक्ला ज8 बहुत बढ़िया ढंग से आपके आजके दौर की वास्तविकता को कलमबद्ध किया है।!
धन्यवाद सुरेन्द्र जी ..
arun ji bahut badiya………..
धन्यवाद मणि भाई..
Bahut vedna se bhara hai….Aaj ki sachaayee ka chitran….behtareen kataaksh….
धन्यवाद शर्माजी ..
सत्य कड़ुआ होता है और आपकी रचना सत्य कह रही है. बहुत खूब………एक बार “जन्नत की आग” पढ़ें.
धन्यवाद सिंह जी ..
अरुण जी यदि देशवासियों की एक गम्भीर समस्या पर कोई उच्च पदेन सोचता है तो उस पर व्यंग समझ से परे है.
मेरी भी समझ से बाहर है कि जहां सोच हो वहां शौचालय कैसे हो सकता है|