अर्द्धनगन सी, प्यारी नन्ही मुस्कान को,
दो निवाले खातिर, चोर बनते देखा मैंने,
झट लिपट मुझसे, सिर्फ इशारों से,
भूख से बदहवास हुई को, मिन्नतें करते देखा मैंने,
जाने बिना वजह, खा जाने वाली नज़र को,
कब से पड़े मुर्दो में जिन्दा होते देखा मैंने,
हवाले कर दो हमारे, इसने चोरी की है,
चोरो को सरे बाजार, पाक होते देखा मैंने,
मारो नज़र पहले अपने अंदर, हर किसी को,
खुद की आँखों में शर्मिंदे होते देखा मैंने,
कसकर लिपट गयी मुझसे, गालो पर दे चुम्बन,
बेजुबान को तहे दिल शुक्रिया करते देखा मैंने,
ले गयी घर मुझे अपने, एक माँ बीमारी से,
एक बाप को पैसे की लाचारी से लड़ते देखा मैंने,
कालाबाज़ारी, रिश्वतखोरी, बेईमानी के साये में,
सच्चे श्रम को, कही चोरी, कही खुदखुशी करते देखा मैंने,
मनीजी….दिल को छू लेने भाव हैं आपके….सही कहा आपने…ऐसे बहुत हैं जो समाज की बुराईओं का ही शिकार हैं….अगर हम समाज में रह के उनका भला ना भी कर सकें कम से कम इतना तो कर सकते की उनको और मजबूर ना करें….या मजबूरी का फ़ायदा ना उठाएं…..बेहतरीन….दोस्त….
तहे दिल से शुक्रिया आपका सी एम शर्मा जी इस उत्साहवर्धक टिप्पणी देने के लिए
सजीव दृश्य उपस्थित कर दिया आपने, मार्मिक भाव…….लाजबाब मनिंदर जी!
छोटी सी कोशिश की मैंने, आपको पसंद आई इसके लिए तहे दिल से आभार आपका
मार्मिक व्याख्या की है आपने. कम से कम रोटी चुरानेवाले को तो हमें चोर नहीं कहना चाहिए. भगवन कृष्ण भी तो माखन चुराते थे. अति सूंदर………………………
विजय जी बिलकुल सत्य कहा आपने……शुक्रिया आपका इस सराहना के लिए
लाजवाब ………………………………………………. मनी !!
thanks sarvajit ji…………………