उस रोज भीड़ में मैं भी खड़ा था
सामने खून में लतपथ कोई पड़ा था
उसे यकीन था कोई तो आगे आएगा
जिस उम्मीद से हाथ उसका आगे बढ़ा था.
फिर देख भीड़ की चुप्पी बोला इंसान कौन यहाँ सच्चा है !
अगर ये दुनिया है तो मर जाना ही अच्छा है.
फिर जो कहाँ था उसने वो सच हो गया,
न उठ सके कभी वो ऐसी नींद सो गया.
भीड़ भी बढ़ने लगी अपने – अपने रास्ते
मैं भी बढ़ रहां था अपने ही वास्ते,
ये सोचते हुये !
अगर ये हाथ उसकी तरफ बढ़ गया होता,
तो शायद किसी के घर का चिरांग बुझने से बच गया होता.
क्या इसके लिए माफ़ करेगा हमारा परमात्मा
उसका तो बस शरीर मरा था पर हमारी आत्मा……………..
– शिवम कुमार शर्मा
Bahut hi sunder aur aaj ki sachchai bayan karti dilchue lene wali Kavita hai aapki Shivam ji.
शुक्रिया Manjusha जी. आप लोगो की प्रतिक्रिया ही मुझे लिखने क लिए प्रेरित करेगी. 🙂
wah shivam ji bahut badiya…….
शुक्रिया Mani जी.
आपके ये एहसास ही सही मगर बहुतों के आंखो से काली पट्टीयां हटा देगी।
शुक्रिया Ved जी. एक छोटी सा प्रयास हैं यह बस.
बहुत ही उम्दा…..सही कहते हैं आप….आत्मा ही जब मर जाए तो जान कहाँ से आये……
ऐसी तमाम घटनाये रोज देखने सुनने को मिलती है मित्र! आपने कागज पर उकेरा, धन्यवाद!
आत्मावलोकन को प्रेरित करती खूबसूरत रचना
परमात्मा होता तो सीधे पीड़ित की ही मदद कर देता| हमारी आपकी जरुरत नहीं पड़ती| माफी तो स्वय से मांगना चाहिए| फिर जब भीड़ को ह्त्या के लिए उकसाने वाले सत्ता में हों और उसी परमात्मा के नाम पर मार रहे हों तो हम और आप क्या कर सकते है..अकेले | इसलिए सामूहिकता की जरुरत है| उम्मीद है आख़िरी पंक्ति पर केन्द्रित टिप्पणी पर आप नाराज नहीं होंगे| वैसे कविता बहुत ही सटीक और आज के समय पर दुरुस्त है| बधाई ..
aaj ki selfish duniya ko aap poet log hi aaina dikha sakte hai sir………….
Oo very nice shiny
really nice saying….keep writing such beautiful lines
Wah sivam ji sach kha apne