होली रंगों का त्यौहार , मानवता का ये सिंगार |
शत्रु को भी लगाता गले से , प्रेम भाव के देता विचार ||1||
बच्चों की होती अपनी होली , युवकों के होते अपने रंग |
बूढ़ों की अपनी होती मस्ती , सभी मिल मनाते आनंद ||2||
जाति धर्म का भेद न रहता , ना रहता कोई अंजाना |
रंगों की मस्ती ऐसी छाती , ना रहता कोइ बेगाना ||3||
गले लगाते गैरों को भी , मन में न होता तनिक दुराव |
यह ऐसा त्यौहार , जो मानव में भरता प्रेम-भाव ||4||
मानव में मानवता होती विकसित , ऐसे ही त्यौहारों से |
शांति मिलन का देते संदेशा , करते दूर विकारों से ||5||
मानव किसी धरं का हो हिन्दू , मुस्लिम हो या क्रिश्चियन |
भारतीय हो या जापानी , या हो कोइ अमरीकन ||6||
संस्कार और त्यौहार , विरासत में हमने पाया है |
पर त्यौहार में छिपा संदेशा , क्या कभी समझ में आया है ||7||
त्यौहारों को या उत्सव को , हम परम्परा की तरह निभाएँगे |
या इसमें छिपे संदेशे को , कभी समझ क्या पाएँगे ||8||
है कथा “होलिका” नामक स्त्री , थी असुर “हिरण्यकश्यप” की बहन |
ब्रह्मा से उसे मिला था वर , कर सकती थी अग्नितेज वहन ||9||
प्रचंड अग्नि की लपटें भी , भस्म उसे ना कर सकती थीं |
वह स्वयं में थी अग्निसिद्धा , ज्वालाएं भी मानो डरती थीं ||10||
प्रहलाद का करने को वध , हिरण्यकश्यप ने अनेक प्रयास किए |
स्वयं ईश्वर ही उसके रक्षक थे , सारे प्रयास थे विफल हुए ||11||
होलिका ने इक दिन सुझाया , भैय्या तुम व्यर्थ ना चिंता करो |
असुर द्रोही को सौंपो मुझे , स्वयं में तुम निश्चिन्त रहो ||12||
प्रहलाद को लेकर अग्नि में , प्रवेश मैं कर जाऊँगी |
असुर जाति के शत्रु को , मैं चिताग्नि में भस्म कराऊँगी ||13||
असुरेश्वर ने माना सुझाव , प्रबन्ध चिता का करवाया |
नारायणप्रेमी पुत्र उसे था ना , कदापि रास आया || 14||
चिता अग्नि थी हुई प्रज्ज्वलित ,लपटों ने जब छुआ था आकाश |
असुरराज था हुआ प्रफुल्लित , आज हुआ कुलद्रोही का नाश ||15||
पर यह क्या घटित हुआ , होलिका के मुख से निकली चीख |
हे ब्रह्मदेव ! यह लीला कैसी , मुझको क्या देते हो सीख ||16||
सीख देने का यह समय नहीं , वरदान को अपने सत्य करो |
मेरे अंक में बैठे असुर शत्रु को , शीघ्रता से तुम नष्ट करो ||17||
वरदान हुआ अगर झूठा , टूटेगा तुम पर से विश्वास |
तुम्हे प्रकट होना होगा , अपने वर को देने को आस ||18||
है कथा हुए प्रकट तब जाकर , स्रष्टि के रचनाकार |
बोले होलिका मुझे दोष देने से पहले , समझो तुम वर का सार ||19||
वरदान मिला था तुम्हे किसी , विवश प्राणी का बचाने को जीवन |
पर तुमने करनी चाही हत्या अबोध की , कर मैला खुद का मन ||20||
वरदान के मर्म को , नहीं. था तुमने पहचाना |
करनी का फल जब हुआ प्रकट , तब जाकर तुमने यह माना ||21||
मानव अपनी भूलों के प्रति , स्वयं ही उत्तरदायी है |
कर्मफल का नियम अटल , इसमें रंच ना कहीं ढिलाई है ||22||
वरदान के दुरुप्रयोग का प्राश्चियत , तुम्हें जलकर करना होगा |
असुरराज को भी मरकर , करनी का फल भरना होगा ||23||
तुम्हारी म्रत्यु , मानवजाति को देगी नव सदेश |
ईश्वरप्रदत्त शक्ति होती है , मानवहित का आदेश ||24||
जो दुरुप्रयोग करेगा इसका , वह स्वयं भस्म हो जाएगा |
करनी का फल वह आप भरेगा , बचा न कोइ पाएगा ||26||
प्रतिवर्ष तुम्हारा होगा दहन , जो मानवता को देगा सन्देश |
ईश्वरप्रदत्त शक्ति का सदुपयोग , है मानना ईश्वर का आदेश ||27||
Bahut hi sundar…….
आदरणीय शर्मा जी प्रशंसा के लिए आपका धन्यवाद
सुन्दर रचना. आप मेरे द्वारा पूर्व में होली पर लिखी कई अन्य रचनाओं को भी पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया अवश्य भेंजे
शिशिर जी प्रशंसा के लिए आपका धन्यवाद
शिशिर जी मैं आपकी रचनाओं को अवश्य पढूंगा
बहुत सुन्दर……………………………….
विजय जी प्रशंसा के लिए आपका धन्यवाद