मेरी राह अति दुरूह है , और मंजिल भी है दूर ||
पर ना मेरे पाँव थके हैं , ना ही हूँ मैं लक्ष्य से दूर || 1 ||
प्रवाह के विपरीत , तैरने का था साहस मैंने स्वयं किया ||
बाधाओं का व्यूह भेदने का था , निर्णय मैंने आप लिया || 2 ||
विघ्नों के वक्ष पर रख कर पाँव , राह स्वयं ही बनाऊंगा ||
सारा जग छोड़े भले मुझे , पर लक्ष्य अवश्य ही पाऊंगा || 3 ||
जीवन को आप सवारूंगा , शुभ कर्मों को अपनाऊँगा ||
जिस पथ पर चलते सुगमपंथी , उस पर ना पाँव बढाऊँगा || 4 ||
संकल्प अवश्य यह मेरा था , पर प्रेरक था वह शक्तिमान ||
यह विश्व पाता है जिससे , संकल्प पूर्णता का वरदान || 5 ||
लक्ष्य प्राप्ति की ओर चला , रखने जब अपने पाँव ॥
शुभेच्छुओं ने समझाया , खेलो ना ऐसा कठिन दाँव ॥ 6 ॥
इस पथ पर मानव , इक दिन निपट अकेला होता है ॥
परिवार, मित्र, रिश्ते नाते , मेला न किसी का होता है ॥ 7 ॥
किसी की ना सुनी मैने, राह नापने चला स्वयम ॥
इस पथ पर साथ चलें जो , ऐसे साथी होते हैं कम ॥ 8 ॥
सफलता, असफलता के बीच, जीवन चक्र घूमने लगा ॥
प्रशंसाओं, आलोचनाओं के बीच , समय का पंक्षी उड़ने लगा ॥ 9 ॥
उतार चढ़ाव देखते जीवन का , हाथ आया केवल संतोष ॥
धरोहर जो कमाई थी जीवन में , बचा वही केवल परितोष ॥ 10 ॥
उपलब्धियों की सूची में , आए जीवन के खाली हाथ ॥
घर परिवार सगे सम्बन्धी , सबने छोड़ा अपना साथ ॥ 11 ॥
घर से एक दिन मिला उलाहना, तुमने किया क्या जीवन में ॥
सुख समृद्धि तो दे न सके , संतोष दिया केवल मन में ॥ 12 ॥
केवल सिद्धांतों से तो, आवश्यकताएँ ना हो सकती हैं पूर्ण ॥
महान बन कर जीने से , औरों की खुशियाँ रहतीं अपूर्ण ॥ 13 ॥
महान कहलाने की थी चाह यदि , तो साधू ही बन जाना था ॥
दायित्व यदि निभा न सके , तो परिवार नहीं बसाना था ॥ 14 ॥
तुम्हारे सिद्धांतो से न तो , धन सम्पत्ति ही प्राप्त हुई ॥
न ही बस सका घर तुम्हारा , विपदा अवश्य है आप्त हुई ॥ 15 ॥
आलोचक बोले , है भूल तुम्हारी , पन्थ न सुगम चुना ||
जिस पथ के तुम अनुयायी बने , उसका वन होता बहुत घना || 16 ||
जो राह चुनी तुमने , उस पर अकेले ही चलना होता है ||
किसी से करोगे क्या आशा , खुद से ही लड़ना होता है || 17 ||
पग पग पर बाधाओं के पर्वत , रोके राह खड़े होंगे ॥
शुभकर्मों से तुम्हें डिगाने को , पड़े बहुत रोड़े होंगे ॥ 18 ॥
चहुँ ओर से आवाज आती है , सिद्धांतों का अब त्याग करो ॥
भौतिक सुखों को अपनाओ , आदर्शों का परित्याग करो ॥ 19 ॥
समझा समझा कर थका किन्तु , कोई भी समझ नहीं पाया ॥
सिद्धांतों के मूल्य नहीं होते , स्वीकार न कोई कर पाया ॥ 20 ॥
यह बाह्य जगत से नहीं , अंतर के अनुभव से आता है ॥
सत्कर्मों से प्राप्त धरोहर से , मानव कैसे सुख पाता है ॥ 21 ॥
अंतर में व्याप्त शांति को , मैं जग को कैसे दिखलाऊँ ॥
भौतिकता में डूबे इस समाज को , ज्ञान कहाँ से सिखलाऊँ ॥ 22 ॥
जग की बातें सुन-सुन कर, मेरा धैर्य डोलने लगता है ॥
किंतु उस शक्ति को कर प्रणाम , जीवन फिर से चलने लगता है ॥ 23 ॥
हे राह दिखाने वाले , तुमसे है केवल विनती मेरी ॥
मंजिल पाने में लगे भले ही , चाहे जितनी देरी ॥ 24 ॥
सत्कर्मों के पथ से , मैं राह न कभी भटक जाऊँ ॥
जब पाँव पड़ें अपकर्म की राहों पर, पथ प्रदर्शन हेतु तुम्हे पाऊँ ॥ 25 ॥
भौतिक सम्पत्ति न साध्य मेरा , ऐश्वर्य सुख की ना चाह मुझे ॥
केवल धर्म पथ पर पाँव रखूँ , ऐसी बस देना राह मुझे ॥ 27 ॥
यह जग ना मुझको स्वीकारे , मुझको कदापि है कष्ट नहीं ॥
जिस राह का राही बना हूँ मैं , उस पता से करना भ्रष्ट नहीं ॥ 28 ॥
ढलती उम्र के इस पड़ाव पर , पाँव नहीं थके मेरे ॥
कर्तव्य पथ की राह भटकने पर , तत्क्षण पाता दर्शन तेरे ॥ 29 ॥
संसार भले ही भटकाए , मैं राह न अपनी छोडूंगा ॥
मुझको केवल आसरा तुम्हारा , कर्तव्य से ना मुख मोडूंगा ॥ 30 ॥
तुम्हारी कृपा रहे मुझ पर , जग की मुझको परवाह नहीं ॥
हे दीनबन्धु बस दया तुम्हारी , छोड़े मेरा साथ नहीं ॥ 31 ॥
Aise sache logon ka deenbandhu kabhi saath chhodte hi nahin……Guru Nanak Devji ke vachan hain….”sangi sakha sab taj gaye..koye na nibhyo saath…kah Nanak iss vipad mein…ek tek raghunaath”….means mere Sabhi saathi…rishtedaaron ne mera saath chhod diya…par mushkil time mein ek bhagwaan hai Jo mere saath hai ussi ne Meri laaj rakhi….. Aapke bhaav bahut hi pavitar hain…..atyant khoobsoorat rachna….
आदरणीय शर्मा जी प्रशंसा के लिए आपका धन्यवाद गुरु नानक देव के वचन मेरे दिल को छू गए
विस्तृत व्याख्या कर दी है आपने, बहुत खूबखूब, इश्वर आपकी मनोरथ पूर्ण करें!
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह प्रशंसा एवं शुभकामनाओं के लिए आपका धन्यवाद