मैं व्याकुल हूं, मैं क्रोधित हूृं, जन जन की पीड़ा गाता हूं।
वो तानाशाह बनकर बैठे, मैं लिखकर मन बहलाता हूं ।
जो माताऐं सीमाओं पर लाल सलोने खोती हैं,
जब देशभक्त वीरों की आंखे मरकर भी यूं रोती हैं।
जो मोल शहादत का भी जाति धर्म देखकर करते हैं,
वो बताऐं क्या वीर शहीद भी धर्म देखकर मरते हैं।
वीरों के कृंदन को मैं उनके कानों तक पहुंचाता हूं,
मैं व्याकुल हूं, मैं क्रोधित हूृं ………
मैं कहता हूं मुझको तुम सम्पत्ति का अपनी ब्यौरा दो,
प्रार्थना मेरी है अब सबसे, ये बात संग में दोहरा दो।
हमको भी तो पता लगे सैंफई उत्सव में मन किसका था,
नेताजी के जन्मदिवस पर खर्च हुआ धन किसका था।
नेताजी को मैं कैराना के हिंदू याद दिलाता हूं,
मैं व्याकुल हूं, मैं क्रोधित हूृं ……..
मोदी के घर से कितने मंत्री एक बार भी बोलो तो,
इस राज्य के कितने मुख्यमंत्री इस राज से परदा खोलो तो।
मोदी का पूरा परिवार बस एक मकान में रहता है,
और यहां सत्ता परिवार बंगले आलिशान में रहता है।
जन सेवक को मैं जन जन की सेवा याद दिलाता हूं ,
मैं व्याकुल हूं, मैं क्रोधित हूृं ……….
बहुत दिनों से आंख मिचोली खेल रहे थे नेताजी,
जातिवाद की राजनीति हम झेल रहे थे नेताजी।
तुमने तो लैपटोप देकर क्या शिक्षा का व्यापार किया!
अबतक नकल रोक सके न मूढ़ो का बेड़ा पार किया।
मूर्ख नौकरी लग गए, मैं योग्यों के दिल में आग लगाता हूं,
मैं व्याकुल हूं, मैं क्रोधित हूृं ……..
लगता है जैसे रामवृक्ष का एक संवाद हुआ होगा,
नेताजी की देषभक्ति का नारा बर्बाद हुआ होगा।
जो कानून को अपने पैरों की जूती बना दिया है तुमने,
और कृष्णनगरी को भी लहुबाग से सजा दिया है तुमने।
बहुत हो चुका बंद करो अब, मैं तुम्हें भविष्य जरा दिखलाता हूं,
मैं व्याकुल हूं, मैं क्रोधित हूृं ………
ये कविता न किसी राजनीतिक पार्टी के पक्षधर है न ही विरोध में ।।।। बस जो नजरो ने देखा कलम ने लिख दिया
गन्दी राजनीती पर करारी चोट करती खूबसूरत रचना, एक बार “हम हो गए कंगाल” और “जन्नत की आग” पढ़ें.
bahut hi badiya umda rachna…………..aaj ki rajniti ke kale pan ko ujgar karti……………..
बहुत अच्छी रचना विमल जी.. राजनीती के घिनौने पक्ष को भी आपने अपनी लय ताल में नचा दिया. बहुत खूब.
विमल जी कलम के आप सिपाही है, कलम की धार ऐसे ही चलती है। बेबाक राय…………!
शानदार रचना. मन की पीड़ा को उद्घाटित करती है.