कांच को हीरा. समझती रही
पथरों से ही झोली भर्ती रही
उलझ दुनिआ के रंगों में
डूबती रही उभरती रही
दामन में मोती डाले तूने
मोल समझ न पाई मैं
मुड़ कर जो देखा आज
सोच अपनी पे शरमाई मैं
पा जाने को सच्ची ख़ुशी
क्या क्या स्वांग रचते रहे
पूरा उनको करने. को
एड्डी चोटी भी एक करते रहे
ढून्ढ. ढून्ढ जब थक गए
पल भर को हम रुक गए
किसी सोच में पड गए
जाने कैसी ललक है लगी हुयी
ज़िन्दगी कश्म काश में फंसी हुयी
क्षणभंगुर. हैं सुख ये सारे
फिरते क्यों हम मारे मारे
फर्क है तो बस नज़र का
बाहर तो हैं दुनिआ के मेले
अंतर में हम खुदसे खेलें
इस लुका छुप्पी. के खेल में
कभी खुद को खो दें
कभी उसको पालें
प्यारा है यह खेल बहुत
न चाहिए कुछ और
हो तुम काफी
और तुम्हारा मेल बहुत
क्षणभंगुर हैं सुख ये सारे
फिरते क्यों हम मारे मारे
फर्क है तो बस नज़र का
बाहर तो हैं दुनिआ के मेले
बहुत खूबसूरती से आपने नब्ज परोशी है…….
बधाई आपको, अच्छी रचना के लिए….!
Dhanyawad Surender ji
बहुत खूबसूरती से अंतर्मन की दुविधा को आपने चिरतार्थ किया है….हम बाहर की भाग दौड़ में अपने को खो रहे हैं….अति सुन्दर…..
मेरी कोशिश आपको पसंद आयी इसके लिए बहुत २ धन्यवाद
जिंदगी की जदोजहद में खुद को भूलते इंसान के जीवन को बहुत खूबसूरती के साथ चित्रित किया है आपने | आप ऐसे ही लिखती रहे ताकि मुझे कुछ आप से सिखने को मिलता रहे |
मेरी कोशिश आपको पसंद आयी इसके लिए बहुत २ धन्यवाद
अंतर्मन की दुविधा को चरितार्थ किया है आपने…बहुत खूब……..
विजय जी सराहना के लिए. बहु २ दनयवद