कश्मीर में आतंकियों के समर्थन पर होने वाले दंगों पर पुरानी सरकारों की तरह सुस्त रवैए पर भारत सरकार पर कटाक्ष करती मेरी ताजा रचना–
रचनाकार- कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
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काश्मीर तो सुलग रही नित-नित भीषण अंगारों से
खौफज़दा क्यों सिंह हुए हैं कुत्तों की ललकारो से
बारूदो के जाल बिछे हिम चट्टानों तक राहों में
सम्राटे का आलिंगन है महबूबा की बाँहों में
तुष्टिकरण की दीमक देखो कितनी हावी हो बैठी
सत्ता की नवबेल भी क्या अपनी खुद्दारी खो बैठी ?
राष्ट्रवाद का ढोल फटा है निंदा वाली बातों से
कायरता की बू आयी, समझौता है जज्बातों से
वीरों के शोणित के छींटे देखो पड़े तिरंगे पर
आहूति लोहू की करते दुश्मन माता गंगे पर
अमरनाथ पर हुआ अड़ंगा देखो रोजेदारो का
खून हुआ है पानी लगता सत्ता के सरदारों का
नागफ़नी की जड़ में मिलता संरक्षण आतंकी को
फ़िर भी क्षीर कटोरा मिलता आस्तीन के डंकी को
गाल तमाचा नहीँ यहाँ दुश्मन गर्दन को काट रहे
फ़िर क्यों गाँधी बनकर दूजे गाल की शिक्षा बाँट रहे
फसल वही उपजायी जाती जो हमको फलदायक हो
कौम वही तुम समझाओ जो समझाने के लायक हो
अब तक तो बेकार गयी है कोशिश इन्हें मनाने की
जुगनू ने हिम्मत की है सूरज को आँख दिखाने की
नही बची केसर की खुशबू काश्मीर की वादी में
बच्चे बूढे सभी ढल रहे आतंकी जेहादी में
सूख न पाती नमी वीर प्रसूताओ के नैनो की
फ़िर भी क्यों उम्मीद इन्हीं से तुम्हें अमन और चैनो की
बहुत हुई जुमलेबाजी अब मोदी जी मेरी सुन लो
सत्ता और शहादत में से क्या प्यारा है अब चुन लो
माना पूरी दुनियाँ में भारत का डंका बजा दिया
अरब देश में भारत की जय, और तिरंगा सजा दिया
सारी दुनिया तेरे सत्कर्मों से भाव विभोर हुई
पर अब झाँक के घर में देखो नस्लें आदमखोर हुईं
सुन्नत करवाकर ना हमको बुलेट ट्रेन ये प्यारी है
भूखे मर जाएँगे पर इनका जीना धिक्कारी है
मन की बातें बंद करो, ना बातें करो विकास की
मौन साधना से क्यों करते खण्ड डोर विश्वास की
सत्ता के सरदारो छोडो कायरता की भाषा को
सिंहों की ज़ंजीरें तोडो कर दो दूर हताशा को
बारूदो के ढेर लगे तो आग लगा ही डालो जी
खूनी खेल जिन्हें प्यारा उनको रक्तिम कर डालो जी
खालिद के वालिद हैं जो और जाकिर से नालायक हैं
हिंसा करके ही मारो जो हिंसा के परिचायक हैं
बुरहानी के जो अनुयायी उनका आज भरम तोडो
स्वाभिमान सो जाए जिससे ऐसा दया धरम छोडो
“आग” कहे जब तक आतंकी और जेहादी जिंदा हैं
सरहद पर गिरने वाली हर बूँद-बूँद शर्मिन्दा है
एक बार शिव-तांडव कर दो काश्मीर की घाटी में
कोई ज़ख्म रहेगा ना फ़िर अपनी पावन माटी में
———-कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
(कॉपीराइट)
कड़वा सत्य ………………….
Very Very true………………………………
आभार शिशिर जी
आभार विजय जी
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