माँ – आज दो वर्ष हो गए हैं तुमको…
रुखसत हुए इस जहां से…
पर हर पल तुम साथ हो..
आशीष रूप तेरी बातें याद करता हूँ…
रोज़ अभी भी तुमसे मिलता हूँ….
याद है मुझे वो आखिरी पल..
डॉक्टर भी उम्मीद छोड़ चुके थे….
भाइयों के संग मैं खड़ा तुमको देख रहा था….
तुम्हारी आँखें स्थिर सी मुझको देख रही थीं…
सुबह से तुमने पलकें नहीं झपकी थी…
स्थिर..एकटक…किसी के आने के इंतज़ार हो जैसे…
बेचैन थी तो हम भाईओं की सांसें…
एक अजीब सी शान्ति थी तुम्हारे चेहरे पे…
मीलों चिलचिलाती धुप में चला पथिक…
छाँव मिलने पे आनंद मगन हो जैसे…
तुम बोल नहीं पा रही थी…पर मेरी बातों के जवाब…
मेरा हाथ दबा कर..बाखूबी दे रही थी…
भाई सब परेशान थे मेरी तरह से…और मैं…
तुम्हारा हाथ पकडे बैठा था…वैसे ही जैसे…
किसी अनहोनी के डर से भगवान् के चरण पकड़…
उसे पुकारता हो….व्यथित…विचलित…लाचार…..
मेरे पूछने पर की माँ कहीं कुछ दुःख रहा है क्या…
तुम मुस्कुराई…वैसे ही जैसे हर मुसीबत में मुस्कुराती रही हो…
बिना किसी को बोले…किसी को कहे दर्द अपना…
दिल बेचैन सा मेरा निष्प्राण हो कहीं गहरे डूबा जा रहा था…
तुम माँ हो..अहसास क्यूँ न होता तुमको…
तुम तो तब भी सब समझ जाती थी…
जब मैं बोल भी नहीं पाता था कुछ…
तभी तुमने मेरे हाथ पकड़ा.. दबाया..मुस्कुरा दिया…
मन बहुत अशांत था मेरा ….
कभी अपना हाथ तुम्हारे माथे पे रखता..कभी पाँव दबाता…
अपने को संभालने की कोशिश करता….
फिर हतप्रभ ठग्गे से रह गए हम…
जब तुमने इशारा जाने का कर दिया…
मन व्याकुल अनाथ सा होने लगा…
आँखें थी जैसे अभी बाँध तोड़ देंगी…
पर तुमने कुछ रोज़ पहले ही बोला था..कि
मेरे जाने के बाद रोना नहीं….
इस लिए पत्थर सा बन गया मैं…
नूर तुम्हारे मुखमण्डल पे ऐसे था जैसे..
प्रतिबिम्ब हो ज्योति का ज्योतिर्मय में समाने का….
तभी तुम्हारी दोनों आँखों से एक एक कतरा..
समंदर में विलीन होने की ख़ुशी में निकला ही था कि…
मैंने समेट लिया उंगलिओं के पोरों पे…
काश में उनको संजो कर रख पाता…
तुमने दिन में पलकें पहली बार झपकीं..
आँखें सदा के लिए बंद कर लीं…..
मेरी उंगलिओं के पोरों कि बूँदें उड़ गयी…
तुम सदा सदा के लिए अनन्त यात्रा पे निकल गयी….
संयोग कहूं….वियोग कहूं या कि कर्मयोग इसे….
‘गुरु पूर्णिमा’ तिथि का उदय होने को था….
तुम परमगुरु से मिलने निकल गयी…
हमारी गुरु, हमारी जननी हमसे विदा ले गयी….
क्रन्दन था हर और…मेरे मन में सन्नाटा घनघोर…
भाव विहीन सा हो गया…आदेश था तुम्हारा….
मैं नहीं रोया…
पता उसी दिन चला पहली बार कि…
सबसे कठिन पल है ज़िन्दगी का …
माँ से बिछड़ना..बिना उसके रहना…
असहाय सा हो जाता है इंसान…
माँ..आज भी रोज़ कि तरह मैं…
सुबह तुमको राम राम बोलता हूँ..
ऑफिस जाने से पहले परनाम करता हूँ…
सोने से पहले गले मिलता हूँ…
पर रोता नहीं हूँ माँ….
ना कोशिश करता हूँ…
हाँ..कभी कभी आँखें..
बरबस भीग जाती हैं…
नहीं पता क्यूँ..
सच कहता हूँ माँ…नहीं पता क्यूँ…
बस भीग सी जाती हैं आँखें…..
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/सी.एम. शर्मा (बब्बू)
बहुत अच्छी रचना………………..
दिल से आभार……
अति सुन्दर रचना…………मां की याद हमेशा आँखों को नाम कर जाती है. मां होती ही ऐसी है.
सही कहते हैं आप विजयजी….बहुत बहुत आभार आप का…..
रुला दिया आपने मित्र, मै भी सिर्फ 4 साल का था जब मेरी माँ का इंतकाल हो गया। फिर माँ शब्द ही मेरी माँ बन कर रह गयी। आज आपकी कविता मुझे बचपन की उन यादों में ले गयी जहाँ हर पल मुझे लगता की माँ यही है, कही छुपी हूँ। खेत में खालिहान में, घर में हर जगह आँखे खोजती।
आपको इश्वर अत्यंत बल प्रदान करें।
आपकी शुभकामनाओं का शुक्रिया….आभार दिल से……
सी एम शर्मा जी २७/०४/१९९८ वाला वो दिन आज फिर से याद आ गया | यही वो दिन था जिस दिन मैंने अपनी माँ को लास्ट टाइम देखा था | बड़ा कठिन वक्त था वो…….ब्रेन हैमरेज हुआ था उनको सिर्फ एक हफ्ते में सब कुछ खत्म | जिंदगी भी उस वक्त इम्तिहान लेती है जब उसके पास कुछ ना हो……बड़ा बुरा वक्त था वो…..भगवान आपको हिम्मत दे…………………आपको मेरा प्रणाम ऐसी महान रचना लिखने के लिए |
मैं समझ सकता हूँ…मनीजी….आप का बहुत बहुत आभार……
मार्मिक रचना….., आँखें नम करने वाली वाली बेहद भावुक रचना !!!
बहुत बहुत आभार आपका…….
अति सुन्दर …रचना आप को नमन
अभिषेकजी….बहुत बहुत आभार………
बब्बू जी अपनी माँ को याद करते हुए आपने उनसे अपने अनोखे प्रेम का सुंदर व् ममस्पर्शी चित्रण किया है. अति सुन्दर.
बहुत बहुत आभार आपका…….
शर्मा जी आपके दिल के ज़ज्बात जो दर्द में डूबे हुए हैं, उनके लिए कोई शब्द नहीं है मेरे पास…………………. फिर भी आपकी कलम से निकले हुए लफ़्ज़ों के लिए आपको सलाम !!
तहदिल से आपका आभार….