आज मेरे परिवार में छाया, इक अदभुत आनंद |
सब मिल मना रहे दीवाली, प्रेम का छाया है नव रंग ||
इक समय वह भी था, जब उदासी ने मुझको घेरा था |
नैराश्य की छाया घेरे थी, चारों ओर अँधेरा था ||
कल की ही है बात, जब मैं बुरी तरह से टूटी थी |
मेरे कर्मों की गठरी, मेरे ही सर पर फूटी थी ||
मैं थी अकेली जीवन पथ पर, प्रतिपल होता था मुझको भान ।
कर्म फल का नियम, कदापि ना दे सकता किसी को क्षमा दान ॥ 1 ॥
वृद्धावस्था ने था जकड़ा , बहुतों ने साथ था छोड़ दिया ।
शुभेच्छुओं ने भी शनै: शनै:, मैत्री का नाता था तोड़ दिया ॥ 2 ॥
जिनके लिए लड़ी थी जीवन भर, सबने साथ था छोड़ दिया ।
जीवन पथ पर रही अकेली , सबने था मुख मोड़ लिया ॥ 3 ॥
दीवार पर टंगी हुई थी , स्वर्गीय पति की तस्बीर ।
बीते पलों की थी याद दिलाती, क्षण क्षण करती थी मुझे अधीर ॥ 4 ॥
बेटी थी हो गयी पराई , बेटे गृहस्थी में थे मगन हुए ।
बुढ़ापे का एकमात्र भी था साथी छोड़ चला, सम्बन्ध सभी से थे खत्म हुए ॥ 5 ॥
एकांत काल भी है इक साथी , करता जो विचारों का मंथन ।
मंथन से ज्ञान प्रकट होता, जिससे बनता है निर्मल मन ॥ 6 ॥
बेटे बेटी के वाक युद्ध ने, मुझे भीतर तक था तोड़ दिया ।
रिश्तों में पडी दरारों ने था , अंतर तक झकझोर दिया ॥ 7 ॥
बेटा बोला था बेटी से , तुमसे सम्बन्ध समाप्त हुआ ।
मैं मरा तुम्हारे लिए आज से , सारे रिश्तों का नाश हुआ ॥ 8 ॥
तुम सी बहन के कारण ही , द्धेष हमारे बढ़ते हैं |
जब भी तुम आकर जाती हो, सम्बन्ध हमारे बिगड़ते हैं ॥ 9 ॥
बहू थी बोली बेटी से, मुझको परिवार का धर्म सिखाती हो |
सास ससुर संग किया जो तुमने, भूल उसे क्यूँ जाती हो ॥ 10 ॥
बेटी भी कम ना थी बोली , मैंने भी तुमको छोड़ दिया |
मैं हुई बिना भाई के, अब से नाता मैंने तोड़ दिया ॥ 11 ॥
मै मर भी जाऊँ तब भी तुम, रोने के लिए नहीं आना |
वास्ता नहीं रहा तुमसे, मेरे मरने पर मुस्काना ॥ 12 ॥
जाते-जाते बेटी बोली, तुमने क्या नया काम किया |
बीते इतिहास को दुहराया , स्वर्गीय पिता को नव नाम दिया ॥ 13 ॥
बहन बेटियों तो इस घर से, सदा निकाली जाती हैं |
ससुराल की चौखट पूज-पूज कर , खुशियां घर में लाई जाती हैं ॥ 14 ॥
बेटी रोकर चली गयी, कर मुझको अंतिम प्रणाम |
बोली मम्मी ना आऊँगी अब , रखना बेटे-बहू को थाम ॥ 15 ॥
जैसे अपनी ससुराल हो भूली , वैसे ही मुझे भुला देना |
मेरी याद आने पर, मामा-मौसी को बुला लेना ॥ 16 ॥
पापा को नित कोस-कोस कर , चाचा-बुआ को छुड़ा दिया ।
ससुराल छुड़ा कर तुमने अपना , संबंधों को इतिहास बना दिया ॥ 17 ॥
भाई बहन के वाकयुद्ध को, सुना था मैंने बनकर मूक |
आँसू ना निकले थे आंखों से , उठी थी अंतर में शूल सरीखी हूक ॥ 18 ॥
जीवन साथी की फोटो के सम्मुख , रोने के सिवा बचा था क्या |
आँखों में. नमी झलकती थी, अकेलेपन के सिवा रखा था क्या ॥ 19 ॥
बेटे की ससुराल से आने वाले थे, कुछ खास किस्म के मेहमान |
बहू पोते-पोती बेटे, मगन हुए करने को सम्मान ॥ 20 ॥
बेटी के घर से जाते ही, मेहमानों ने था घर में कदम रखा |
ठहाकों से घर था गूँज उठा, पर मैंने मौन व्रत था ज्यों रखा ॥ 21 ॥
दरवाजा भीतर से था बंद हुआ, बेटे थे लगे मनाने आनन्द |
पर मेरे मन में मचा हुआ था , भीतर ही एक अंतर्द्धन्द ॥ 22 ॥
अकेलापन बांटने को, मैं चली थी दूर कुछ करने सैर |
पर मेरी मनोव्यथा मानो, रखे थी मुझसे प्रबल बैर ॥ 23 ॥
सैर नहीं कर पाई थी , मेरे उद्धेलित मन को शांत |
विचारों की श्रंखला नाच-नाच करती थी, मुझे और उद्भ्रान्त ॥ 24 ॥
केवल व्यस्तता ही ना कर सकती , मानव की चिंता दूर |
सत्य का सामना किए बिना , शांति ना मिल सकती भरपूर ॥ 25 ॥
एकमात्र सहारा ईश्वर का , शायद वहीं मिलेगी शांति |
मन्दिर की ओर थे बढे कदम, करने को दूर मन की भ्रान्ति ॥ 26 ॥
ईश्वर को था किया समपर्ण, अश्रुधार थी बह निकली |
यह क्या किया विधाता तूने , आज न मेरी एक चली ॥ 27 ॥
रो-रो कर मन की व्यथा कही थी , अन्तर्यामी के समक्ष |
अंतर से ही था आदेश मिला, रोने से पहले मन को करो स्वच्छ ॥ 28 ॥
तुम रोती हो किसी के कारण, तुम्हारे कारण भी कोई रोता है |
जग में अकारण कुछ भी नहीं , हर बात का कारण होता है ॥ 29 ॥
औरों को दोषी ठहराकर , मानव दोष न खुद का छिपा सकता |
दुनिया को शांत करा कर मानव , भूल न खुद की छिपा सकता ॥ 30 ॥
जाओ जाकर देखो उन्हें , जो तुम्हारे कारण रोए हैं |
तुम्हारे हठ से विवश होकर , रिश्ते जिन्होंने खोए हैं . ॥ 31 ॥
मन्दिर में बैठकर रोने पर भी, कर्मभोग भरना होगा |
कल जो वृक्ष लगाया था , फल उसी का अब चखना होगा ॥ 32 ॥
अंतर्मन की यदि मानो , अपनी भूलों को स्वीकार करो |
जो शेष बचे क्षण जीवन के , उनमें भूलों का प्रतिकार करो ॥ 33 ॥
आह ईश्वर के दर पर भी थी , शांति न मुझको मिल पायी |
जिसे भूल चुकी थी मैं , उस बीते कल की याद आयी ॥ 34 ॥
बीते कल को साथ लिए, जब मैंने था घर में कदम रखा |
बेटे का कमरा मिला बंद , दुर्गन्ध ने था घर को जकड़ रखा ॥ 35 ॥
मेरी चिंता भी थी किसको , जो आकर पूंछता मेरा हाल |
बिस्तर पर थी लुढ़की मैं , होकर पूरी तरह निढ़ाल ॥ 36 ॥
बहू ने था आदेश दिया , मम्मी जी खाना ले लीजिए ।
थकी हुई हूँ बुरी तरह, अब और न मुझको तंग कीजिए ॥ 37 ॥
पुत्र वधू की वाणी सुनकर, मन था और उद्धिग्न हुआ ।
निढ़ाल शरीर में मेरे ज्यों, जलती अग्नि का था स्पर्श हुआ ॥ 38 ॥
निद्रा मुझे न आनी थी, विचारों की लहरें हिलोरें लेती थीं ।
बीते हुए दिनों की यादें, मन को झकझोर देती थीं ॥ 39 ॥
वह भी एक समय था, जब मैं ब्याह कर घर में आई थी ।
सारे परिवार के लिए, इक नई खुशी ज्यों छाई थी ॥ 40 ॥
सास-श्वसुर देवर-ननद, सब मुझसे स्नेह रखते थे ।
मैं सबकी प्रिय थी, सब मेरा पूरा आदर करते थे ॥ 41 ॥
समय बीतते मैं, तीन बच्चों की थी बनी माता ।
एक बेटी दो बेटों के संग था , समय रहा आता जाता ॥ 42 ॥
देवर-ननद के भी थे , विवाह हुए उनके भी परिवार बसे ।
कुछ नए सदस्यों ने थी ली किलकारी , कुछ चलने-फिरने से थे विवश हुए ॥ 43 ॥
सारे सदस्य घर भर के , मेरे इशारों पर चलते थे |
बेटे-बेटी की बात ही क्या , पति भी मेरा मान रखते थे ॥ 44 ॥
समय बीतते नियम सृष्टि का था , हम पर साकार हुआ ।
सास-श्वसुर संग छोड़ चले, परिवार का नव विस्तार हुआ ॥ 45 ॥
ना जाने किन कमजोर क्षणों में, स्वार्थ नें था मुझमें जन्म लिया ।
खुद के भाई-बहनों के , स्नेह ने था मुझको जकड़ लिया ॥ 46 ॥
देवर-ननद थे लगे मुझे ज्यों, भाई-बहन के प्रतिद्धंदी ।
स्वार्थी प्रेम के आकर्षण ने, मुझे बनाया था बंदी ॥ 47 ॥
मन में भड़की स्वार्थाग्नि ने, नव कुंठा को भड़काया था ।
स्नेह प्रेम का किया नाश, प्रतिशोध अग्नि को उकसाया था ॥ 48 ॥
स्नेह प्रेम को त्याग, स्वर्थाग्नि मन में थी भड़क उठी ।
परिवारिक स्नेह करने को भस्म , मन में थी एक हूक उठी ॥ 49 ॥
स्नेहिल वचन थे भगे दूर , तीखे व्यंग्यों ने जन्म लिया ।
कटु वचनों की बरसात हुई, रिश्तों में दरारों ने था विस्तार लिया ॥ 50 ॥
कुछ समय तो परिवार ने, चुप रह कर सब कुछ था किया सहन ।
व्यंग्य बाणों के विष पीकर भी, अपमान अग्नि को किया वहन ॥ 51 ॥
पति को भी दिये थे ताने खूब , सम्बन्धों को था कोसा जम कर ।
देवर ननद के थे दोष गिनाये, खूब पानी पी पी कर ॥ 52 ॥
पति ने रखा था धैर्य, किंतु स्वार्थ ने मुझको किया अधीर ।
किस तरह हो सम्बन्ध खत्म, मेरे मन में थी तीव्र पीर ॥ 53 ॥
मानव मन भी कब तक आखिर, व्यंग्य बाण सह सकता है ।
विवश होकर मानव इक दिन , प्रतिकार भयंकर करता है ॥ 52 ॥
आखिर इक दिन था प्रतिकार हुआ, मैं आस में जिसके बैठी थी ।
वाकयुद्ध की अग्नि थी दहक उठी, आखिर जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी ॥ 53 ॥
प्रथम सफलता थी मिली उस दिन ,जब इक देवर ननद से संबन्ध समाप्त हुए ।
एक़ और राह के काँटे, व्यंग्य बाणों से थे परास्त हुए ॥ 54 ॥
घर में खिंची थी दीवारें, इक-दूजे का मुँह देखना था हुआ बन्द ।
मायके के सगे सम्बन्धियों के, आने से छाया था मन में आनन्द ॥ 55 ॥
मेरा इच्छा थी पूर्ण हुई , मन मयूर हुआ था पुलकित ।
मायके का मेरे था हुआ राज, मैं थी ह्रदय से प्रफुल्लित ॥ 56 ॥
नहीं पता था उस क्षण, कि कर्मों का फल भरना होगा ।
आज मैंने जो कृत्य किए, कल मुझे वही चखना होगा ॥ 57 ॥
मेरे किए हुए कर्मों को, बेटे-बेटी हैं देख रहे ।
बीते हुए कल का फल देने को, बाट समय की देख रहे ॥ 58 ॥
समय का पंक्षी था लगा उड़ने, नव रिश्तों था हुआ विस्तार ।
एक दामाद दो बहुओं ने, आकर स्वपनों को किया साकार ॥ 59 ॥
नए मेहमानों का था हुआ आगमन, खुशियों ने मानों था डाला डेरा ।
पर समय न किसी का सदा रहता, मुसीबतों का भी है पड़ता फेरा ॥ 60 ॥
पति की सेहत थे लगी गिरने , पकड़ा बिस्तर तो नहीं उठे |
ना जाने क्या गम उनको था , भीतर ही भीतर दहक उठे || 62 ||
जीवन से साथ छोडकर ही , उन्होंने था बिस्तर छोड़ा |
मैं हुई सोहागन से विधवा , चूड़ियों को था मैंने फोड़ा || 63 ||
भाई की अर्थी को बहन ने, सड़क पर ही था किया प्रनाम |
अनुजों ने दी थी मौन श्रद्धांजली , लौटे थे घर में जपते हरि नाम || 64 ||
पति के जाते ही , बेटों ने था नया रूप फिर दिखलाया |
दोस्तों संग लगीं थीं जुटने महफिलें , संस्कारों को था ठेंगा दिखलाया || 65 ||
बेटी ने थे सास श्वसुर छोड़े , नया ठौर इक था बसाया |
सास श्वसुर की सेवा करना था , उसे नहीं बिलकुल भाया || 66 ||
बेटी ने जब अपना घर था छोड़ा , तब फटी नहीं मेरी छाती |
भाई ने बहन को छोड़ा था , तब लगा लुटी कोई थाती || 67 ||
पति था खोया बेटे खोये , बेटी भी थी खोने वाली |
जीवन में था क्या शेष बचा , जिसे थी मैं अब बचाने वाली || 68 ||
रिश्तों की कदर यदि की होती , तो यह दिन आज नहीं आता |
मेरे ही कर्मों से हुआ बाम , मुझ पर आज विधाता || 69 ||
मेरे कर्म थे आज मुझ पर , लाठी बन कर बरस रहे |
बेटी का भविष्य सोचकर आँसू , आँखों आँखों से थे छलक रहे || 70 ||
भूलों के प्रतिकार का , संदेश मिला था मन्दिर में |
वही शब्द थे गूँज रहे , क्षण क्षण मेरे अंतर में || 71 ||
भूलों का प्रतिकार करो , इस चिन्तन में थी आँख लगी |
पौ जब फटी तो , मन-मंथन से प्राश्च्यित की थी आस जगी || 72 ||
जीवन के जो क्षण शेष बचे , वे व्यर्थ नहीं अब जाएंगे |
अपनी भूलों का कर प्राश्च्यित , अंतर में शान्ति पाएंगे || 73 ||
आखिर मैंने था ठान लिया , अब समय नहीं खोने दूंगी |
जितना खोना था खो चुकी , जो शेष बचा उसे संजोउगी || 74 ||
बची शक्ति को था किया एकत्र , अंतर को था दिया सम्बल |
ह्रदय में बसे हुए डर को था दूर भगाया , मन को था मैंने दिया नव बल || 75 ||
बेटे-बहू थे जाने वाले , बोले मम्मी है बिजी शिड्यूल |
मैंने कहा था सुनो अब मेरी , बहुत कर चुकी पहले मैं भूल || 76 ||
बहुत किया मनमानी तुमने , मैंने बहुत बर्दाशत किया |
जुबाँ रही खामोश , क्योंकि मैंने भी था पाप किया || 77 ||
मेरी साँसे अभी चल रहीं , संस्कारों का होगा नाश नहीं |
घर की मर्यादाओं का , अब होगा और विनाश नहीं || 78 ||
मद्यपान ना होगा घर में , सीमा में ही रहना होगा |
महफिलें नहीं जमेंगी घर में , घर को घर ही बनना होगा || 79 ||
बहुएँ बोलीं माता जी , हमें तो खूब उपदेश दिया |
क्या अपनी बहकी बेटी को भी, कोई नव संदेश दिया || 80 ||
मैंने कहा सही कहती हो , बेटी सास-श्वसुर के घर जायेगी |
सास-श्वसुर को अपनाकर ही , इस घर में कदम रख पायेगी || 81 ||
तुमको मैंने दिया संदेशा , अब बेटी के घर जाउंगी |
टूटे सम्बन्धों की माला के मनके , पिरोकर ही घर आउंगी || 82 ||
बेटे थे बोले मम्मी , क्या तुमने अजब सपना देखा |
जो हो न सके कभी पूरी , उस आशा को मन में बसा रक्खा || 83 ||
मैंने कहा था सुनो बच्चो. , मैंने है तुमको जनम दिया |
मेरा निश्चय है अटल , मैंने सुधार का प्रण है लिया || 84 ||
भावुक नहीं बनूंगी मैं , आँसू अब न बहाऊँगी |
कर्तव्य जो छोड़ा था पीछे , अब आगे उसे निभाऊँगी || 85 ||
ईश्वर मुझे शक्ति देगा , मेरा आदेश चलेगा घर में |
बिछुड़े रिश्ते जुडेगें फिर से , आनन्द मनेगा आंगन में || 86 ||
मेरी अंतिम यात्रा से पहले , संबंध सभी जुड़ जाएंगे |
रिश्तों की डोरी में बंधकर , हम फिर से मोद मनाएंगे || 87 ||
यह न समझना केवल बेटी ही , इस घर में वापस आएगी |
हर टूटे सम्बन्ध की रात्रि , सुबह बनकर जगमगाएगी || 88 ||
अब मैं निकलती हूँ घर से , वापस आने तक तुम बदल जाना |
इस बूढ़े तन की शक्ति को , तुमने नहीं है पहचाना || 89 ||
मेरा निश्चय है अटल , तुम्हें अब जीवन की राह बदलनी है |
जो पथ भटकाता हो तुमको , उस पर चलना बदचलनी है || 90 ||
मेरे लौटने पर तभी मिलना , यदि आदेश मेरा हो कबूल |
मुझको अशक्त समझने की , करना अब नहीं भयंकर भूल || 91 ||
मनमानी यदि करनी हो , तो छोड़ के घर जाना होगा |
मरने पर भी आ ना सकोगे , जीवन खुद ही बसाना होगा || 92 ||
ईश्वर को कर मन में प्रणाम , मैंने बाहर कदम रखा |
दृढ़ निश्चय की पूंजी लेकर , प्रश्च्यित के पथ पे कदम रक्खा || 93 ||
बेटे-बहू थे खड़े अवाक , इतनी शक्ति कहाँ से आई |
किस मायावी की पड़ी है , इस बूढ़े तन पर परछाईं || 94 ||
इस पथ पर थी मैं चली अकेली मै , पर मन था अटूट विश्वास |
जिस ईश्वर ने कराया मुझको , मेरी भूलों का अहसास || 95 ||
वही इस संकल्प पथ पर , कदम नहीं डिगने देगा |
मेरा प्राश्च्यित पूर्ण करेगा , अब और नहीं गिरने देगा || 96 ||
ज्यों ही मैंने था बढ़ाया कदम , बोझ ह्रदय का शांत हुआ |
मन का बोझ था हल्का हुआ , पर उद्धिग्न मन फिर अशांत हुआ || 97 ||
ईश्वर जब हो सहयोगी , मानव सब संभव कर लेता है |
मन का अटूट विश्वास , दुर्गम पथ के कष्ट हर लेता है || 98 ||
टूटे सम्बन्ध जोड़ने में था , लगा समय वर्ष भर का |
ह्रदय से प्रश्च्यित करने को , मैंने था किया तप ज्यों जीवन भर का || 99 ||
आखिर टूटे रिश्तों को , मेरी सच्चाई का जब भान हुआ |
पति के अधूरे सपनों का , था जाकर तब सम्मान हुआ || 100 ||
घर में थी आई फिर से खुशी , मेरा कर्तव्य था पूर्ण हुआ |
मेरा प्राश्च्यित था पूर्ण हुआ , अंतर मंथन था सम्पूर्ण हुआ || 101 ||
परिवार में फिर से देख खुशी फिर से , अश्रुधार थी बह निकली |
जीवन-साथी की फोटो के समक्ष , अंतर की व्यथा थी फूट चली ||
जीवन रहे या जाये , अब नहीं है मुझको इसका गम |
मैंने भूलों का किया प्रश्चिय्त, अंतर मेरा हुआ है नम ||
हे जग के स्वामी , इतनी शक्ति मुझे देना |
जब छाये निराशा की रात्रि , ऐसी ही शक्ति मुझे देना ||
Kin shabdon se main aapki rachna ki sraahna karoon…..har ek pahloo ko aapne bade hi marmik…sadhe hue….sadhaaran shabdon mein aapne piro diya hai…. Zindagi ki sachaayee or behtareen shiksha ke saath aapne byaan kiya hai….karmon ka har kisi ko fal toh bhogna hi hai…achhe ya bure…jab Yeh baat samajh aa jaati hai toh mushkil…asaan hi nahin hoti apitu pyar ka Jo vataavaran banta hai usmein sab ko santushti Milti hai….or yahan santushti hai parmaatma toh vahin niwaas karta hai…anandkosh…….laajwaab…..behatareen…..marvellous….mind blowing…..satya ko ujjagar karti rachna…..jai hoooo……
बहुत बहुत धन्यवाद शर्मा जी आप लोगों की प्रेरणा ही मेरी कलम की शक्ति है | सदैव अपने सुझावों से मुझे लाभान्वित करें
सब कुछ लिख डाला आपने, यह आपके जीवन अनुभव को दर्शाता है, क्योकि कोई पारखी ही हीरे को पहचानता है। बधाई आपको इतनी विस्तृत विवेचनात्मक रचना हेतु!
आदरणीय सुरेन्द्र जी, आपकी प्रशंसा ने मन को छू लिया आप जैसे पारखी ही मेरी कलम की शक्ति है |
शानदार रचना. इसको सभी को पढ़ना चाहिए.
धन्यवाद शिशिर जी आपकी प्रेरणा ही मेरी शक्ति है |