मैँ बैठा,
खेत की पगडण्डी पर,
एक आवाज़ आयी,
पर कोई नज़र ना आया,
मैंने हर तरफ नज़र घुमाई,
मैँ धरती माँ हूँ,
देख अपने पैरो में,
फिर वही आवाज़ आई,
विकृत सी आकृति,
मेरे चारो तरफ उभर आई,
लगा ऐसा,
सदियों का दुःख लिए,
खुद को सम्भालते थी हुई,,
एकदम,
मार दहाड़ खूब रोई,
फिर धीरे-धीरे,
उसने अश्रु पोछे,
मैँ सुन्न सा देखता रहा,
मुझे देख,
फिर वो कुछ मुस्कुराई,
बोली बेटा,
मैँ धरती माँ हूँ,
जिसका चीर सीना,
तुम अपनी भूख-प्यास मिटाते हो,
मेरे शृंगार रूपी, पेड़ों को काट,
खुद के जीवन को सजाते हो,
फिर से उस आकृति की आँखे,
ना चाहते हुए भर आई,
हिम्मत जुटा बोली,
तुम काट रहे हो,
पहाड़ रूपी मेरे अंगो को,
निकाल खनिजों को,
खोखला मुझे कर रहे हो,
चिंताओं से भरी रेखाएं,
उसके चेहरे पर उभर आई,
मैँ चुप सा,
उसकी आँखों में,
उसके दुःख पढ़ रहा था,
अचानक वो हँसने लगी,
जोर जोर से,
बेहताशा हँसते हुए,
एक सवाल,
मेरे सामने ले आई,
धरती माँ थी,
कभी तुम इंसानो की,
मेरे तन को बाँटने के लिए,
क्यों कर रहे हो तुम लड़ाई ?
दाग दिए,
मुझ पर ही गोले बारूद,
कर अपनों का ही खून,
झूठी अपनी शान के लिए,
मेरे पीड़ बढ़ाई,
मैंने क्या माँगा तुमसे ?
कभी सोचा तुमने,
कैसी औलाद हो तुम ?
नंगा कर दिया तुमने मुझ को,
सारे बर्ह्माण्ड में,
तन ढकने की खातिर,
जरा सा क्या हिली मैँ?,
तुम बोले,
कुदरती आफत कैसे आई,
वक्त रहते,
ढक दो मुझे,
जहरीला धुंआ, पानी,
मेरे तन से हटा दो,
मुझे पहले जैसा,
सजा दो,
यही बात,
मैँ कहने तुमसे आई,
मैँ माँ हूँ,
तुमको सजा ना दे पाऊँगी,
पर तुम्हारे दिए,
जख्मो से ज्यादा देर,
जिन्दा ना रे पाऊँगी,
बेटा मैँ तुम्हे,
यही बात समझाने आई,
कितने जख्म दिए है मैंने,
कितनी सुन्दर थी मेरी माँ,
कितना विकृत कर दिया,
चेहरा मैंने अपनी माँ का,
लिपट कर रोने लगा उससे,
बात जब मेरी समझ में आई ,
सकूँ और उम्मीद थी,
उसके चेहरे पर,
मुस्कुराहट लिए जाने कहाँ,
गुम सी हो गयी,
वो विकृत सी परछाई,
मनिंदर सिंह “मनी”
कम वस्त्रों के फैशन से धरती को बचाना होगा, धरती की सुंदरता को हरियाली लाना होगा. सुंदर रचना.
साथ ही सजावट की चीज़ो में भी कमी लगी होगी……………..तहे दिल से शुक्रिया विजय जी
बहुत ही सुन्दर रचना मनी जी
शुक्रिया अभिषेक जी आपका
अत्यन्त खूबसूरत
तहे दिल से शुक्रिया शिशिर जी आपका बहुत बहुत
सुन्दर विचार …………………… बहुत बढ़िया मनी !!
बहुत बहुत आभार सर्वजीत जी आपका
Maniji…..man moh liya…..bas itna hi kahoonga……..
मेरे लिए आपके यह शब्द किसी अचीवमेंट से कम नहीं…………….बहुत बहुत शुक्रिया सी एम शर्मा जी
पर्यावरण असन्तुलन पर मानव मन को जागृत करने वाली रचना.
जी मीना जी……….तहे दिल से आभार आपका मेरी रचना पढने के लिए