मेरे महबूब इस जनम में तू दीवाना हम जैसा ना पाएगा
हमारी याद बहुत आएगी जब तू औरों को आज़माएगा.
दुनियाँ के डर से भले ही तूने खुद को अकेला कर लिया
हमको यकीं है पूरा एक दिन तू फिर हँसेगा मुस्कराएगा
दुनियाँ के अपने कायदे हैं मुहब्बत का भी है अपना धरम
हर शख्स जिन्दगी के इस खेल में अपना चरित्र निभाएगा
नदियाँ की बहती धारा को तुम कितना भी चाहे रोक लो
एक न एक दिन पानी तो गहरे समुन्दर तक पहुँच जाएगा
वो क्या जानें हमको नशा है दर्द के समुन्दर को पीने का
मुहब्बत का मज़ा तो ऐ मेरे यारों इस हाल में ही आएगा
शिशिर “मधुकर”
अति सुंदर………….( रचना का प्राकृतिक भाव टिहरी में बहती धारा रोकी गयी तो उत्तराखंड में बादल फटने लगे.)
शुक्रिया विजय ………………..
बहुत खूब शिशिर साहब अति सुंदर रचना क्या लाइन्स लिखी है आपने “नदियाँ की बहती धारा को तुम कितना भी चाहे रोक लो ,एक न एक दिन पानी तो गहरे समुन्दर तक पहुँच जाएगा”
शुक्रिया राजीव………………….
Behataree…….kya ashaar hain….ek se badh ke ek…..mohabbat ka maza…Waah……kya baat hai…..
तहे दिल से शुक्रिया बब्बू जी …………………..
कलम के जादूगर की एक नायाब प्रस्तुति।।।।।।।।
मन मुग्ध हो गया सर जी…………..!
हार्दिक आभार सुरेन्द्र
कलम अनुभव को और लफ्ज़ मुहोबत के भावो को बेहतरीन अंदाज़ में दर्शाते…………बहुत खूब सर…..
धन्यवाद मनी…………
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्…क्या कहने…गज़ब
हार्दिक आभार अभिषेक
लाजवाब …………………………………………………… मधुकर जी !!
हार्दिक आभार सर्वजीत
खूबसूरत रचना शिशिर जी ।
Once again मीना जी आपकी सराहना का तहे दिल से शुक्रिया