एक प्रेयसी की बात
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ख़ामोशी से मेरे बातो को पढ़ते गए
छुपा छुपा के सब से…
सुनते गए
आवाज़ों को मेरी
एक मुस्कुराहट
होठों के पीछे छुपा कर….
है कि नहीं…?
बोलो तो जरा…
एक गहरी ठंडी सांस भरी
और फिर छोड़ दी…
फिर ख़ुद को ख़ुद में
समेट लिया
सिकुड़ कर..
और
और ज्यादा गहराई से याद करने लगे…
तुम ऐसे हो
तुम वैसे हो
पर जैसे हो
बहुत अच्छे हो
सच्चे हो
पर थोड़े झूठे हो
कुछ कहते क्यों नहीं
सिर्फ बातें बनाते हो..
हमें कब से इंतज़ार है
की तुम कुछ कहो
कुछ नहीं
तुम सब कुछ कहो
और मैं तुम्हे
देखती रहूँ
तुम कहते कहते थक जाओ
थक के सो जाओ…
तो भी मैं तुमको देखती रहूँ
निहारती रहूँ ……।
-हरेन्द्र पंडित
हरेन्द्र जी आपने तो अपनी ही बात कलम से लिख डाली, हाहाहाहाहाहा …….अत्यंत खुबसूरत!
कलम कभी हार नहीं मानती जनाब ,
लिख देती है अपने दिल का हिसाब | धन्यवाद
Bahut khoobsoorat………..
Very nice…………………
wah kya baat hai sir ………………
Very nice expression……………….
बहुत बहुत धन्यवाद सुरेन्द्र जी,सुखमंगल जी,बब्बू जी,मधुकर जी मणि जी और विजय जी,
वास्तव में सृजन अनुभूतियों से जुड़ी प्रक्रिया है, यही कारण है ,कि आज तक किसी पाठ्यक्रम में सृजन करना नहीं सिखाया जा सकता, वरन् किये जा चुके सृजन का अध्ययन कराया जाता है। अनुभूतिओं का क्षण अत्यंत अद्भुत होता है। स्वयं का भाव शुन्य हो जाता है,और उस भाव का आवरण चारों ओर रच जाता है,जिसकी अनुभूति रचनाकार को होती है।जब कोई रचना पाठक को उसी अनुभूति में ले जाने में सक्षम हो पाती है,तभी उसे सफल माना जा सकता है ।