मैँ महकशी, मैँ मदमस्त शराब हु,
रोटी खाने को नहीं, पर मैँ बेहिसाब हु,
किसी को पीटकर, कही कुछ बेचकर,
लिखा किसी का, उधारी का हिसाब हु,
नालियों में पड़ी, उल्टियों से सनी,
किसी माँ-बाप की प्यारी औलाद हु,
देर रात रास्ता देख रही, किसी पत्नी का,
उसका सब कुछ, एकलौता सुहाग हु,
बच्चों की उम्मीदे, उनकी मुस्कुराहट,
जाने कहाँ खोया ?, खुद में एक सवाल हु,
पीते थे कभी कभार, मुझे दवा समझ,
उजड़ते घरों के लिए आज बनी अभिशाप हु,
कभी ख़ुशी में, कभी गम में,
कभी थकावट मिटाने वाली आवाज़ हु,
बनाया भी इंसा ने, पीया भी भी इंसा ने,
और इंसा ही कह रहा मैँ उसका विनाश हु,
मैँ महकशी हु……………
बहुत खूब मनी जी
thanks rajeev ji
बहुत अच्छे मनी………..
बहुत बहुत आभार शिशिर जी आपका
सुंदर रचना ……………..
शुक्रिया विजय जी आपका
सामाजिक बुराई के दोषों पर प्रकाश डालती रचना.
शुक्रिया मीना जी आपकी इस सराहना के लिए
बहुत शानदार कृति है
तहे दिल से शुक्रिया डॉ छोटे लाल सिंह जी आपका
बहुत ही सुन्दर मनी जी
शुक्रिया अभिषेक जी……………..
शानदार…..अगर सब समझ जाएँ….नहीं तो विनाश…..बहुत खूबसूरती महकशी है आपकी कलम में…. हा हा हा….
बहुत बहुत शुक्रिया सी एम शर्मा जी आपकी महकती प्रतिक्रया के लिए
Bahut sundar rachna
thanks anand ji
बहुत खूबसूरत मनी………..!!
बहुत बहुत शुक्रिया निवातियाँ जी आपकी इस उत्साहवर्धन प्रतिक्रया के लिए
बहुत अच्छे मनिंदर जी…… एक सन्देश भी और कटाक्ष भी….
शुक्रिया सुरेन्द्र जी आपके इस सराहना के लिए |
बहुत ही बढ़िया …………………….. मनी !!
शुक्रिया सर्वजीत जी आपकी इस सराहना के लिए |