कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय
मै गुमनाम रही, कभी बदनाम रही
मुझसे हमेशा रूठी रही शोहरत,
तुम्हारी पहली पसंद थी मै
फिर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत ||
ज़ुबान से स्वीकारा मुझे तुमने
पर अपने हृदय से नही,
मै कोई वस्तु तो ना थी
जिसे रख कर भूल जाओगे कहीं
अंतः मन मे सम्हाल कर रखो
बस इतनी सी ही तो है मेरी हसरत
पर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||
तुम्हारे प्यार के सागर से
मिल जाते अगर दो घूट
अमृत समझ कर पी लेती
फिर चाहे जाते सारे बँधन छूट
खुदा से मांगती तो मिल गया होता
तुमसे माँगी थी थोड़ी सी मोहब्बत
पर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत|| (प्रथम भाग)
Nicely written…………………………….
bahut bahut aabhar Vijay ji aapka
बहुत खूबसूरत शिवदत्त … अच्छा विषय चुना है ………..!!
बहुत बहुत आभार नीवतिया जी, बस कुछ हटके लिखने का सोचा तो यही विषय मस्तिष्क मे आया ||
बेहतरीन शिवदत्त ………………….
शुक्रिया शिशिर जी …
shivdutt जी बेहतरीन , प्रश्न भी तार्किक और गंभीर ………. ! अत्यंत खुबसूरत!
बहुत-२ शुक्रिया सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आपका ..
एक अच्छी रचना जो हमारे विचारण के दृष्टिकोण को चुनौती दे रही है।
वाह!
आपकी प्रतिक्रिया के लिए बहुत-२ आभार अरुण जी
Bahut hi anoothi…..behtareen..
thanks a lot babbu ji ….
एक अच्छी रचना………….बहुत अच्छे विषय पर……बहुत बढ़िया
मणि जी आपका बहुत बहुत आभार …