दो आँखों से दिखी नहीं, दो आँखें और चढ़ा लीं,
बुढ़ापे की लाठी ने जवानी की दौड़ लगा ली,
जैसे खबर मिली दिल धक-धक, धक-धक दौड़ा,
याद आ गयी पुरानी बातें फिर रुक गया थोड़ा,
निकल पड़ी तांगे पर तुम मैं पीछे-पीछे दौड़ा,
याद करो वो बीते दिन जब अपनी हड्डी तोड़ा,
बेतहाशा दौड़ लगाई, चाह में थी तुम समाई,
गड्ढे में जब पाँव पड़ा तो नानी-दादी याद आई,
तुम भी दादी-नानी बन गई और मैं दादा-नाना,
प्यार फिर भी बना रहा, अलग हो गया घराना,
हमारे प्यार की बातें सुन बच्चे मंद-मंद मुस्काते,
बीच में अपने प्यार के कुछ किस्से हमे सुनाते,
किस्से बनते-बनते रह गए ऐसे अपने किस्से,
कभी तेरे-मेरे बीच के थे, अब बच्चों के हैं हिस्से ।
विजय कुमार सिंह
vijaykumarsinghblog.wordpress.com
वाह विजय जी लाजवाब…………यादें ताज़ा हो गई
बहुत बहुत धन्यवाद mani जी .
क्या बात है…..आपकी तांगे की यात्रा….और आज के प्यार की यात्रा…..बीते दिनों का अनुभव टीस भरा ही क्यूँ न हो….सुकून देता ही है….बहुत बेहतरीन अंदाज़ हास्य व्यंग के साथ..पुराने खिलाडी हैं….जो बैटिंग पे जमे हुए… हा हा हा…..
बहुत बहुत आभार सर.
प्यार के किस्से तो ऐसे ही होते हैं जो कभी भी ज़िंदगी में भूल नहीं पाते ……………………….. बहुत ही बढ़िया विजय जी !!
बहुत बहुत आभार सर.
बहुत अच्छे विजय ………………..
ह्रदय से आभार सर.
क्या खूबसूरत तस्वीर पेश की है अधूरे प्रेम में ……लोग कहते है की प्यार कभी पूर्ण नहीं होता , मगर वास्तविकता यह है की प्यार तो सैादव पूर्ण होता है अपितु मिलान अक्सर अधर रह जाते है ….!!
बहुत अच्छे विजय !!
पसंद के लिए ह्रदय से आभार सर.
अति सुंदर लाजवाब……………विजय जी !!
बहुत बहुत धन्यवाद अभिषेक जी.
बेहतरीन रचना …….
बहुत बहुत धन्यवाद Ankita जी .
विजय जी क्या बोलू, निशब्द हूँ और मनीषी जनों ने जो कहा है वाही मेरी भी भाषा है, साधुवाद आपको!
बहुत बहुत धन्यवाद सुरेन्द्र जी.
हा हा हा हा हा……….क्या बात है सिंह साहब। कितनी गजब की प्रेम कहानी गढ़ी है आपने। पूरी कहानी इस कविता के माध्यम से आपने प्रस्तुत कर दी।
रचना पढने और पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका.