एक दूजे के साथ मे हमने
अनगिनत नटखट से कृत्य किये
हर ख़ुशी को मिलकर उसके
उत्सव मे भी नृत्य किये
कुछ लोग हमारे करनी का
खूब थे करते भोग
दादा जी के एक मित्र थे हमसे
ये था एक संजोग
उनके और मेरे पितामह का
सब देते थे उदाहरण
बिचित्र वो जीवन को बीताते
पर शैली थी साधारण
रोज ही कोई नया किस्सा होता
मन्नू भी उसका एक हिस्सा होता
उनके कुछ नाम थे रखे
चिढ़ते थे, कोई आपा न खोता
एक दिन मेरी थाली में उनके
मित्र ने रखे कुछ ऐसे जीव
दादा बहुत गुस्सा हुए पर
मित्रता मे प्रेम की नींव
वो गांव की स्मृतियाँ,
फूलों की सुगंध
निश्छल सबका प्रेम भाव से
मुस्कुराना मंद मंद
हर दिन एक उत्साह था रहता
जबकि कोई न लक्ष्य निराला
बस प्रकृति की गोद मे सबकुछ
मन से सोचा कभी निति न डाला
जैसे बचपन बीता उसका
वैसे ही जीवन का अंतिम प्रहर हो
भौतिक सुखो का भोग किया जो
अंजाना सा जैसे कोई जहर हो
उसके मित्र सम्बोधन करते
इंद्रधनुसी उल्लास वो भरते
अब तो अपने गांव मे आजा
आखिर तुम किससे हो डरते
समाज के मान से,
धन के लोभ से
या और धनवान बनने
के प्रलोभ से
संतुष्टि ही सबसे ऊँचा पद है
वही तो मन का जनपद है
ब्यवसाय और अपने कल सुदृढ़ पर
फिर आज क्यों तेरा इतना स्तब्ध है
बिलकुल सही कहा आपने….प्रश्न चिन्ह जो आज लगा है…वह लालच वश…स्वार्थ वश रिश्तों में कड़वाहट डाल रहा है…हम जान बूझ कर अंजान हो रहे हैं….वह निश्छलता वो प्रेम आज कम हो गया है….
ji sriman, bus kuch vicharo ko akriti dene ki koshish kar raha hu..