कुछ तुम भूले, कुछ हम भूले
लिखने को तो शब्द मिले थे
शब्दों में भी अर्थ मिले थे
अनुभव के काँटों में बिंधकर
अभिशापों के विषघट पीकर
क्या लिखना था, क्या लिख पाये
कुछ तुम भूले, कुछ हम भूले।
जीवन सागर के तट आकर
नाव उतारी जर्जर पाकर
हम तूफाँ को बुला रहे थे
उसको बैरी बना रहे थे
फिर नाव छोड़ क्यूँकर भागे
कुछ तुम भूले, कुछ हम भूले।
पथ पर हम तुम दोनों मिलकर
बढ़ते थे हम गिरकर उठकर
ढूँढ रहे थे मंजिल किसकी
अपनी या अपने बंधन की
चलते थे किस पथ पर जाने
कुछ तुम भूले, कुछ हम भूले।
जीवन की मधुशाला पाकर
कुछ बुँदें मदिरा की पीकर
हम साकी से उलझ पड़े थे
पूर्ण नशे में डूब गये थे
फिर हम कैसे घर पर आये
कुछ तुम भूले, कुछ हम भूले।
हमने सोचा यूँ ही जी कर
आलस की कठपुतली बनकर
सपनों के पलनों ऊँघेंगे
जीवन साँसें भी गिन लेंगे
पर गिनती कितनी गिन पाये
कुछ तुम भूले, कुछ हम भूले।
—- भूपेन्द्र कुमार दवे
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bahut khub sir……………….
अति सुन्दर ……………………
अति सुंदर ……….!!
भूपेन्द्र दावे जी बेहतरीन …..!
Behtareen…..aapne Yeh pahle hinglish mein likhi thi kya…..
बहुत बहुत खूब भूपेंद्र जी.
अदभुत श्रीमान जी।।