किसने जाना है मोहब्बत के सफर का अंजाम ….
हर कदम शोलों पे चलने का भी जिगरा चाहे….
यह नज़रें इनायत यह मीना ए मोहब्बत….
उल्फत के दरिया में ज़हर पीने का जिगरा चाहे….
रुसवाई का ताज पेशानी पे रहे दाग…
ज़ख़्म दिल के पिरोने का भी जिगरा चाहे….
अपनी मर्ज़ी से जिए हैं तो रोएंगे भी खुद से ही ….
पत्थर को रुलाने को पत्थर सा ही जिगरा चाहे…..
यह तो “चन्दर” ही था जो जा लपका सूरज को…
सरे महफ़िल में जल जाने का भी जिगरा चाहे….
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/सी.एम. शर्मा (बब्बू)
कमाल का जिगरा दिखाया है आपने …..सरे महफ़िल में जल जाने का भी जिगरा चाहे….क्या खूब कहा ! उम्दा रचना !!
तहदिल से आभार…..आपका निवातियाँ जी……
वाह…जिगरा…वाह कमाल है…………………….
तहदिल से आभार…..
बब्बू जी बेहतरीन अंदाज़ ……….
बहुत बहुत आभार…आपका….
सूरज को लपकने का जिगरा तो शर्मा जी आप ही कर सकते हैं वर्ना किसकी मज़ाल के कोई सूरज के पास भी जा सके, आपके जिगरे को सलाम ……………………….. लाजवाब शर्मा जी !!
अब चन्दर तारों से पंगे लेता फिर जिगरा नहीं दीखता……हा हा हा…..आभार बहुत बहुत आप का….
लाजबाब……….बहुत खूबसूरत बब्बू जी
अभिषेकजी….दिल से बहुत बहुत आभार आपका…..
वाह सी एम शर्मा जी कमाल ही कर दिया आप के जिगरे ने
यह सब आप का कमाल है जी….आभार आपका….
Bahut hi khoobsurat prastuti…Sir…
बहुत बहुत आभार आपका…..स्वातीजी….
Aapka andaje byan kabhi khubsuraत hai…….
बहुत बहुत आभार आपका…..अमरजी……..