कुछ दिन पहले मैं अपने गांव के सड़क से गुजर रहा था,
तभी कुछ आवाजे सुनाई दी शायद कोई लड़ रहा था…..
मैंने भी हकीकत का पता लगाने का ठाना,
जाके देखा तो होटल का हलवाई किसी गरीब को मारे जा रहा था ताना…..
जो लोग वहां खड़े थे ओ बस तमाशा देख रहे थे,
गरीब की हालत पर पता नहीं तरस खा रहे थे या हंस रहे थे…..
मेरे भी मन में उनकी बाते सुनने क लिए हलचल मच रही थी,
जाके सुना तो बाते कुछ ऐसी चल रही थी……
गरीब : ताना मुझे मत मरो साहब मैंने नहीं की कोई चोरी है ,
दो रोटी ही तो माँगा था उधार जो मुझको बहुत जरुरी है…..
मेरा सहारा मेरे दिल का टुकड़ा मेरा एकलौता जो बेटा है ,
बुखार से तड़प रहा घर में दो दिन से भूखे पेट ओ लेटा है……
हलवाई : चाहे जितनी रोटी चाहिए उतनी तुझे मैं दूंगा,
लेकिन कुछ न सुनूंगा पुरे पैसे पहले ही लूंगा….
गरीब : अभी कहा से पैसे दू मैं एक हफ्ते से कुछ मिली नहीं कुछ काम है,
तुम्ही बताओ साहब बिना काम के कहा मिलता दाम है…..
फिर भी हलवाई तो हलवाई थी उसे दया कहा आनेवाली थी,
चिल्ला चिल्ला के देने लगा ओ गरीब को जितनी भी याद उसे गाली थी…..
देखा नहीं गया मुझसे वेदना से ह्रदय मेरा तो भर गया,
बस यही सोचे जा रहा था की इंसान का इंसान से प्रेम ही मर गया ….
खैर भूल क ये सब बाते मैंने पर्स फिर अपना खंगाला ,
देखा इतना तो पैसे थी जितने में उस गरीब को खिल सकता था एक दिन का निवाला…
जाके फिर मैंने उस हलवाई को लगाई फटकार,
ये लो पैसे दे दो रोटी नहीं चाहिए कोई उधार…
रोटी मिलते ही जैसे उसकी पूरी हो गई मन की मुराद,
एक छोटी सी कीमत के बदले ओ दे गया मुझे बेशकीमती आशीर्वाद…..
“अमर चन्द्रात्रै पान्डेय”
प्रसंग के माध्यम से सुंदर रचना. वर्तनियों की शुद्धियों पर ध्यान देने से इसकी खूबसूरती और बढ़ जाएगी
jaise sir…………..
बहुत सुन्दर …………………..
Thank You Sir……….
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Thank you Sir……
संवाद रूप में खूबसूरत प्रस्तुति !!
Thank you so much Sir. …..
सुंदर रचना……………………………………
Thanks sir……….
बहुत खूब ………………………… अमर जी !!
Thank you sir ……