हुल के फूल
घिरे चार दिवारी के अंदर
खिलते नहीं हैं
वह तो
तुम्हारे और मेरे हृदय में भी खिल सकता हैं
जब तुम्हारे
आँखो के सामने
लोगों पर अत्याचार होता हैं
तुम्हारे पत्नी और बेटी को
उठा के ले जाते हैं
कुछ बुरा सोचकर
पहाड़ -पर्वत, नदी नाला
और घर -दुवार से भी
तुम्हें बेदखल होना पड़े
तुम्हारे धन -दौलत
लुट लेंगे
विचार और सोच पर भी
फुल स्टोप लगायेन्गे
तब
अपने आप
देह का खुन
गर्म हो जयेगा
नर्म हथेली भी
कोठर मुट्ठी मे बदल जयेगा
कंघी किया सर का बाल भी
खड़ा हो जयेगा
और जोर से आवज़
निकल जयेगी
हुल हुल हुल……
तब तुम्हरी चट्टानी ह्रीदय मे
हुल का फूल खिलेगा
तब तुम्हरी चट्टानी ह्रीदय मे
हुल का फूल खिलेगा
अति सुंदर
धन्यवाद अरूण जी
तीक्ष्ण कटाक्ष के साथ जाग्रत करती सुन्दर रचना….