तुझे भुला दिया ए ज़माने मैंने ,इस रंज भरी नगरी की खातिर
तेरे प्यार भरे अफ़साने और वो बीते लम्हों के नज़राने ……
अब तो खून ही मेरा धर्म बन गया है ज़माने …..
प्यार और वफ़ा की राह को हम क्या पहचाने …
नहीं सकूँ मुझे मंदिरों की घंटियों में कही
आज़ानें मजहिदो की हम क्या पहचाने ……
मासूमियत से नफरत है हमें इस कदर …
हर शख्स का कतल कर दे ,जो हम ठाणे …
मेरी हुकूमत , मेरा रुतबा , मेरे खौफ से कापा
हर मुल्क, शहर , क़स्बा , गली और कूंचा …..
मुझे आज़ादी चाइये , ये मेरा है नारा…
मगर किस चीज़ से , किसके लिए मुझे न है पता
मैंने लाखो को फूंका , मेरे अंधे विश्वास से ऐसे
अब तोह मातम है , हर घर के आँगन में जैसे
मेरी मैँ ही मुझ मैँ समाई है इतनी गहरी
मैंने खुद ही खून से भरी पिचकारी …
दिवाली पर दियो से नहीं रोशन मेरा जंहा
मुझे भाये , गोला बारूद और आंसूं से भरी चिंगारी
मगर मैँ थक गया सब को ये समझा कर
मैँ नहीं छोडू, दुनिया मेरा शारीर है अमर अज़र
उस खुदा ने मुझे भेज दिया आपने घर से ….
क्युकी मेरा ईमान, मेरा मज़हब , मेरा प्यार ही था डर …….!!!
अब बता ए ज़माने मुझको , तू कैसे बचाएगा खुद को
कोई मसीहा तेरा भी है अगर , बुला ले उसको इस ज़मी पर इधर
अब वो ही बचाएगा तेरी मासूमियत को मुझसे ……!!
क्युकी वही है तेरा रक्षक , तेरा भगवन , तेरा पालनकर्ता ……
बहुत ही अच्छे विषय पर लिखा है आपने. आतंक आज के समाज की सबसे बड़ी समस्या है. बहुत खूब…
dhanyawad vijay ji
बहुत खूबसूरत ……………
dhanyawad abhishek ji
खूबसूरती से आपने अंतर्मन की पीड़ा को जताया है…..
Dhanyawad aapka , babucm ji , mein bahut pareshaan ho jati hoon roz news sun kar , isliye aapni frustration ko issi madhyam se zahir karna uchit samjha
सही कहती हैं आप….परेशानी आप अपनी लेखनी के ज़रिये बाहर आने दो…अंदर मत रखिये…..
लिखने के माध्यम से हम बहुत योगदान दे सकते अच्छे समाज बनाने में…पर पहल तो हमें खुद से करनी होगी….विजय जी ने अभी सफ़ेद शेर पे लिखा है….मेरी एक ऐसी ही रचना है…..अमावस का चाँद…पढ़इया उसको…
बहुत खूबसूरती से ह्रदय के अंदर सुलगते जजबातो को उकेरा हा जो तार्कित रूप से तर्कसंगत है ……अति सुन्दर तमन्ना !!
dhandyawad nivitiya ji
संवेदनशील विषयो पर कुशल लेखन के लिए बधाई स्वीकार करें।
thanks arun ji
अद्भुत रचना……….
thanks amar ji