बहुत देर तक जब अंधेरे उठाये,
कहीं तब, ज़रा सी रोशनी में आये।
मुकद्दर का लिखा तो मिलना है मुझको,
मैं चाहता हूँ जो कुछ, कोई तो दिलाये।
कलम में हो स्याही, नहीं कुछ भी मतलब,
उसे जाके कोई, काग़जों से मिलाये।
हैं अश़आर मशहूर फ़लक तक, उसी के,
हों, ग़म दूसरों के भी, जिसने उठाये।
तुम्हारी ही यादों का कैदी हूँ आख़िर,
कहीं मर न जाऊँ, कोई जो छुडाये।
आग पेट की हो या मन की, हवस की,
ख़ुदा आदमी को सभी से बचाये।
लतीफों में, महफ़िल में, जान झोंकी फिर भी,
थे मेहमान बुझदिल, नहीं मुस्कुराये।
एक शब मुझे, मेरे आइने ने घेरा,
ये अश़आर जलते, उसी ने सुनाये।
‘अजेय’ तुमको समझाया सुब्होशाम फिर भी,
कभी शायरी से न तुम बाज आये।
अजय कुमार ‘अजेय’
[email protected]
04.02.2016
हर शेर लाजवाब…..बहुत ही उम्दा…. और बाज तो आना ही नहीं हमने…..कोई मुस्कुराए या ना मुस्कुराए……
आग पेट की हो या मन की, हवस की,
ख़ुदा आदमी को सभी से बचाये।
लतीफों में, महफ़िल में, जान झोंकी फिर भी,
थे मेहमान बुझदिल, नहीं मुस्कुराये।
एक शब मुझे, मेरे आइने ने घेरा,
ये अश़आर जलते, उसी ने सुनाये।
लाजवाब नक्काशी का नमूना है ये आपके सारे शेर।
वाह! बहुत खूब!!
बहुत खूब जी ……
सभी शेर बहुत खूबसूरत हैं
आप सब का बहुत बहुत शुक्रिया
शेर के फूलों से माल पिरो दी आपने. बहुत खूब……………..
उम्दा …………!!
बेहतरीन………!
आप सब का बहुत बहुत धन्यवाद।