एक ओर दीपक जले , एक ओर आग
पल भर में जल कर शरीर , बन जाता है राख .
एक ओर सब रो रहे , एक ओर मुस्काय
बरसों का रिश्ता पल में ,छिन्न – भिन्न होइ जाय .
एक ओर सब दुःख में कुछ ना रहे हैं खाय
कैसा जीवन और ये बदन हैं , जो माटी में मिल जाय .
एक ओर सब देख रहे , एक ओर बतलाय
हस्ता – खेलता शरीर ,कैसे शव बन जाय .
कवियत्री – ऋचा यादव
मुझे समझने में भूल है शायद आपकी रचना की…पहली तीन पंक्तियां आपकी जीवन के दो पहलु उज्जागर करती हैं…पर उस से आगे…एक ही पहलु….
maine is kavita mein unhi chizo ka vardan kiya hai jo maine dekha aur mehsoos kiya babu ji. par mujhe lagta hai ki mre bhav kuchh spasht nahi hai. aage se koshish karungi ki jo bhaav hai wahi padhak ko samajh aaye.
उत्तम रचना. ऋचा आप मेरे द्वारा इसी विषय पर पूर्व में प्रकाशित रचना “जिंदगी के दौर” भी अवश्य पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया भेंजे.
thank you sir. aapki rachna bahut hi behetrin hai
जीवन का सत्य यही है और हर किसी को अपनाना पड़ता है. babu ji की बातों को थोड़ा स्पष्ट करें ताकि आप के कहने के पूर्ण भाव हम समझ सकें.
बहुत खुब…………..
प्रबल भावों ने शब्दों के तारतम्यता वाले अभाव को छिपा लिया हैं।
बहुत खूब ऋचा जी!
ऋचा रचना के भाव बहुत खूबसूरत है ………सुधि जनो का संशय विचारणीय योग्य है !!
thank you