‘तुम क्यों कभी नहीं मुसुकाते?’
_अरुण कुमार तिवारी
महक उठे जब बूटा बूटा,
गुलदाऊदी सजे नभ् धरती|
नदियाँ नवसुर नवलय लेकर,
गीत नए बुन कल कल करती|
तुम चुप ही क्यों रह जाते?
हे पाहन!
तुम क्यों कभी नहीं मुसुकाते?
हे पाहन!
बारिश की वो पहली बूंदे,
चलती इठलाई जब नभ् से|
पत्ते पत्ते निरख बाट थक,
कर पसार तब स्वागत करते|
तुम तकते क्यों रह जाते?
हे पाहन!
तुम क्यों कभी नहीं मुसुकाते?
हे पाहन!
मलय समीर सुवाषित बहती,
कँट पात तरु झुक तब जाते|
दाह बढ़ाती रवि की किरणे,
थम जाती कुछ तब संकुचाते|
तुम स्यामल क्यों रह जाते?
हे पाहन!
तुम क्यों कभी नहीं मुसुकाते?
हे पाहन!
देखो खिला अवनि का हर कण,
कैसे हर क्षण यौवन खनके|
रोम रोम पुलकित नव जीवन,
जीवट सुधा श्रोत सम बनके|
तुम अधरों में कह जाते!
तुम अधरों में कह जाते!!
हे पाहन!
तुम भी कभी काश मुसुकाते!
हे पाहन!
-‘अरुण’
———————–0———————
बेहतरीन रचना. प्राकृतिक सौंदर्य और शक्ति के साथ गम्भीरता की आवश्यकता को रेखांकित करती है
धन्यवाद श्रीमन्!
“Tiwari ji” anupam saundary. ..dekho khila avani ka har kan. ..
बहुत ही बढ़िया …………………. अरुण जी !!
धन्यवाद सर………
प्राकृतिक मनोरम छटा के सौंदर्प के संग पर्वत की गम्भीरता का संयोजन बहुत खूबसूरती से पेश किया है आपने …..अति सुंदर !!
धन्यवाद निवातियाँ जी! आप की पारखी नज़र से कोई भाव छूट कर नहीं जा सकता। मैं धन्य हुआ आप जैसे व्यक्तित्व का सानिध्य पाकर|
आप को आपकी साहित्य साधना को नमन!
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा कहूं क्या….सच में……बेहतरीन…लाजवाब….
प्रोत्साहन के दो शब्दों का ही तो जादू है। व्यक्ति जो चाहे सो कर गुजरे।
आपका धन्यवाद!!
लाजबाब ………अति सुन्दर अरुण जी
धन्यवाद सर……….
बेहतरीन रचना है. प्राकृतिक सौंदर्य का चित्रण करती हुई प्रकृति का दूसरा पछ भी प्रदर्शित कर रही है.
मेरे रास्ते के दाहिनी ओर एक पहाड़ी पड़ती है। विगत कई बार मैंने उसे खुश करने की कोशिश की लेकिन वह यूँ ही निरपेक्ष भाव से गम्भीर बना रहा। बस कल भी वही हुआ। और मैंने उससे पूछ लिया।
आप सब ने रचना पढ़कर मेरे मन के उदगार को महसूस किया साथ ही अपने अनमोल वचनों से उसके वज़न को भी बढ़ा दिया। मैं मूढ़ धन्य हुआ।
विजय जी को कोटिशः नमन!
रचना पसन्द करने के लिए आनन्द जी का बहुत बहुत आभार!