वो कौन था परिंदा यहाँ से निकल गय़ा
अपनी कमी का भाव मेरे दिल को दे गय़ा
उसके लिये तड़प की सीमा नहीँ रही
दरियादिली जो थी देखा नहीँ कहीँ
अश्को का वो समंदर बहाकर निकल गय़ा
वो कौन था परिंदा …..
किस्मत का वो धनी था मुझे अब पता चला
हम बेफिक्र मद में वो करता रहा भला
कांटों के बीच खूशबू का समा जला गया
वो कौन था परिंदा …..
शोहरत भी पाई थी वो अपने नसीब से
ग़म इतना सता रहा नहीँ जाना करीब से
अहसास का वो मोती सज़ाकर निकल गया
वो कौन था परिंदा जहाँ से निकल गय़ा.
डॉ.सी.एल.सिंह
bahut sundar likha aapne. ispar bas itna hi kehna chahunga ki..
shayad wo parinda bhi yahi sochta hoga..
khoye hue moti ko kahi khojta hoga..
bhavnasheel rachna.
आपके मनोभावों को सलाम औऱ तहे दिल से एहतराम.
वेदना के मनभावों का खूबसूरत चित्रण
ये आपका बड़प्पन है .
बहुत ही खूबसूरत
सादर धन्यवाद बंधुवर ..
बेहतरीन रचना ……..
महती सुक्रिया ………….
वाह….क्या पश्चाताप के भावों को आपने मूरत रूप दिया है…बहुत बढ़िया….
आपको दिल से साधुवाद.
बहुत अच्छा लिखा है आपने. भाव भी बहुत अच्छे हैं. अगर बुरा न माने तो एक पंक्ति इस प्रकार करें तो और भी अच्छा लगेगा.
“कांटों के बीच खूशबू का समा जला गया” के स्थान पर
“अंधेरों के बीच उजाले की शमा जला गया”
कांटों के बीच खुशबू रूपी शमा जलाने की बात की गयी हैजो आलंकारिक गुणों से युक्त है इसलिए इसे अनुचित न समझे
नेक सलाह के लिये नमन.