शायद मैं भी गा पाऊँगा
शायद मैं भी गा पाऊँगा
तेरे सुर में, अपनी धुन में
पंखहीन बुलबुल के खातिर
बिखरे तिनके नीड़ बनावें
सारे काँटे डाल डाल के
जब फूलों की महक उड़ावें
आँधी भी आने के पहले
नाविक को तट पर ले जावें
शायद तब ही गा पाऊँगा
तेरे सुर में, अपनी धुन में
जब जब आँसू ओस बूंद से
उषा किरण में मुस्कायेंगे
और वेदना जीवन भर की
कुछ आँसू ही पी जावेंगे
और लहर की गोदी पाकर
हौले से हम तर जावेंगे
शायद तब ही गा पाऊँगा
तेरे सुर में, अपनी धुन में
जब पुण्य बस एक हमारा
सब पापों को धो पावेगा
या फिर सत्कर्म इक हमारा
सब कर्मों का नाथ बनेगा
या फिर पापी मन यह मेरा
श्राप-मुक्त हो पुण्य करेगा
शायद तब ही गा पाऊँगा
तेरे सुर में, अपनी धुन में
टूटी वीणा के तारों पे
तेरी जब वाणी थिरकेगी
पीड़ा ले वह मेरी सारी
तेरी वाणी बन जावेगी
वीणा के हर तार बजेंगे
हर सुर से करुणा फूटेगी
शायद तब ही गा पाऊँगा
तेरे सुर में, अपनी धुन में
थके थके से पाँव जरा भी
चलने की चाहत ना छोड़े
थकी थकी सी साँस जरा भी
जीने की चाहत ना छोड़ें
चला चली की इस बेला में
आँसू भी गरिमा ना खोवें
शायद तब ही गा पाऊँगा
तेरे सुर में, अपनी धुन में
जन्म-मरण के इस बंधन से
प्राण मुक्त हो जब उड़ जावे
या तू बनकर उड़ता पंछी
मेरे प्राणों में बस जावे
तब चाहे ये पंख नोंचकर
तू मुझे उड़ाकर ले जावे
शायद तब ही गा पाऊँगा
तेरे सुर में, अपनी धुन में।
—- ——- —- भूपेंद्र कुमार दवे
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बहुत बढ़िया……………………
भूपेन्द्र कुमार दावे जी…..आपकी रचना भाव संप्रेषण में खरी उतरती है…..!
Nice write…………….
वाह….बहुत ही खूबसूरत……
बहुत सुंदर, हृदय को छूती खूबसूरत रचना।