बिलखती नदियाँ टूटते पहाड़
हिमालय मे हो रहा नित मन्थन
सुनाई दे रहा नदियों का क्रन्दन
खो रहा घाटों का चैनो अमन……..फिर क्यों मौन हो रहे हैं हम
बाँज-बुरांश के पेड़ हों या चीड़-देवदार
सिमटते हुये झरने हों या टूटते हों पहाड़
नही रुक रहा बन रहे बाँधों का बहशीपन……फिर क्यों मौन हो रहे हैं हम
आ रही परियोजनायें काँप रहे हे ये पहाड़
खुद रही हैं सुरंगें उजड़ रहें हे गाँव बार-बार
नही रुक रहा लोगों का यहाँ से पलायन……..फिर क्यों मौन हो रहे हैं हम
बिलखती भागीरथी या रोती हो अलकनन्दा
प्रयागों की भूमी पर हो रहा पानी का धन्धा
नही देखा जाता उजड़ते गाँवों का ये रुँदन……..फिर क्यों मौन हो रहे हैं हम
उजड़ते गाँव लोग हो रहे दर-दर के भिखारी
बचाव कर रहे हैं बूढ़े, बच्चे हों या नर-नारी
सुन कर हालात है सरकार का कैसा बहरापन……..फिर क्यों मौन हो रहे हैं हम
गाँव गलियारे के लोग पहाड़ छोड़कर भाग गये
क्योंकि उनके घर भी तो डूब क्षेत्र मे आ गये
क्या इसी दिन के लिये किया था अलग राज्य का गठन
फिर क्यों मौन हो रहे हैं हम
(अनूप मिश्रा)
अच्छी भावना लेकिन बढ़ती हुई आबादी और शहरीकरण से उपजी माँगो को पूरा करने के लिए और कोई चारा भी तो नहीं.
अति सुंदर………भावो को खूबसूरत शब्दों से संजोया है आपने …..मगर आवष्यकता वश विकास भी कईबार विनाश का कारण बन जाते है !!……जिनके विकल्प भी स्वंय ही तलाशने होंगे !!
Anoopji……bahut hi sundar bhaav hain…Jo likha aapne bahut hi sahi likha hai…haan Jo dono gunijan boley hain woh bahut uchit hai…ham Sab har ek suvidha chaahate hain…Wo suvidha paane ko…vikas zaroori hai…dekhna Yeh ki kya vikas ke naam pe jaanboojh kar apne vishesh swaarth poorti hetu khilwaad toh nahin ho raha…or kya Hamare paas uska vikalp tha ya hai….or dhoodhana hoga….