एक दिन दुःखी होकर धरती ने कहा नील गगन से
देख अत्याचार मुझ पर तू भी तो दुःखी होता है मन मे
बस मुझ पर तू इतनी दया करना
अपने आगोश मे छुपे बादलों से कहना
कि तुम अब की बार जोरों से बरसना
ताकी हरा भरा हो जाये धरती का कोना
बोला नील गगन
तुझ पर यूँ ही अगर जंगल साफ होते जायेंगे
तो मेरे आगोश मे बादल मे कैसे बन पायेंगे
दया के बजाय तू अपने आपको इनसे बचा
लोगों को पेड़ लगाने का उपाय बता
बोली धरती लोग मुझ पर यूँ ही जुल्म करते जायेंगे
मेरे टुकड़ों को यूँ ही नीलाम करते जायेंगे
मेरी शरण मे रहने वाले पशु भी विलुप्त हो जायेंगे
धरती पर बोझ बनने वाले ही इंसान कहलायेंगे
ऐसे ही इंसान मुझे खोखला करते जाते हैं
और उसी के कारण मुझ पर भूकम्प आ जाते हैं
जब कई बेकसूर मारे जाते हैं
तो बदनाम धरती को ही कर जाते हैं
पर मत भूल एक दिन मै भी तेरे रंग मे मिल जाऊँगी
मै भी अपना अस्तित्व मिटा तेरे रंग मे समा जाऊँगी
हँस कर बोला नील गगन अरे पगली तू कैसे मुझ
मे मिल जायेगी
मै फिर भी विशाल गगन और तू धरती ही कहलायेगी
बोली धरती
गर यूँ ही लोग मुझे खोदते चले जायेंगे
तो मुझ पर असंख्य छिद्र हो जायेंगे
फिर मै पूरी तरह नीले सागर मे समा जाऊँगी
इसी तरह मै तेरे नीले रंग मे समा जाऊँगी
विषय अच्छा है मिश्र जी!
बधाई!
thankyou sir
good anoop brother
nice…………
welcome
सुंदर रचना……..
अनूप मिश्रा जी धरती और नील गगन के परस्पर संवाद से बहुत ही गंभीर विषय पर सरल शब्दों में उम्दा रचना है यह आपकी………बहुत खूब!
सरल शब्दों में बहुत खूब! अनूप जी
बहुत खूब………….
सरल शब्दों और अच्छे भावों द्वारा प्रकृति के दोहन का चित्रण किया है आपने.
धन्यवाद आपका
संवाद के माध्यम से प्राकृतिक पर विवेचन का अनूठा प्रयोग ,,,,,,,,,,,,,,,,,,बहुत खूबसूरत एव काबिले तारीफ है !!
धन्यवाद आपका