रवायत दुनियां की बदलने निकला था मैं…
पहचान अपनी का भी मोहताज हो गया हूँ मैं…
घर पे नाम लिखा है मेरा अब भी….
रूह से लेकिन नदारद हो गया हूँ मैं….
ज़िन्दगी ढो रही मुझे या मैं ढो रहा इसे…
अपने ही शरीर में दफ़न सा हो गया हूँ मैं…
है उम्मीद कि बरसेंगे बादल सहरा में भी “बब्बू”….
बेशक इंतज़ार में उसके अब थक गया हूँ मैं…
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/सी.एम.शर्मा (बब्बू)
क्या लाइन्स लिखी है आपने “ज़िन्दगी ढो रही मुझे या मैं ढो रहा इसे…
अपने ही शरीर में दफ़न सा हो गया हूँ मैं…” बहुत खूब l
बहुत बहुत आभार आप का…..
बहुत खूब लिखा बब्बू जी
बहुत बहुत शुक्रिया….
बहुत खूब सी एम शर्मा जी
मनीजी…..बहुत बहुत शुक्रिया…..
खूबसूरत और यथार्थपरक रचना है. अगर आप शब्दों में थोड़ा उलट-फेर कर दें तो और भी खूबसूरत लगेगा.
पहचान अपनी का भी मोहताज हो गया हूँ मैं… को बदलकर निम्न प्रकार करना चाहें तो ज्यादा सुन्दर लगेगा.
अपनी पहचान का भी मोहताज हो गया हूँ मैं…
जी…बहुत बहुत आभार आपका……
सुंदर और यथार्थके धरातल पर समृद्ध रचनारचना।
तहदिल से आभार….रचना को पसंद करने का….
एक तरह के वैराग्य की ओर बढ़ते भाव
तहदिल से बहुत बहुत आभार आपका….
बहुत खूब बब्बू जी
thanks a lot……
इंतज़ार की घड़ियां लम्बी होती हैं पर उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए …………………. बहुत खूब शर्मा जी !!
सर्वजीतजी….पहले तो दिल से स्वागत आपका….किसी भी मेरी रचना पर आपकी ये पहली प्रतिकिर्या है……आप बहुत सही कहते हैं…उम्मीद ही छूट गयी तो रहा क्या फिर….बहुत बहुत आभार आप का….
बब्बू जी जमाने बदलने वालों को सच ने अपनी पहचान खो देनी ही पड़ती है, अगर बीज अपना स्वरुप न खोये तो विशाल वट बृक्ष कैसे बनेगा…….रही बात जिन्दगी हमे ढो रही है या…..तो जीवन एक अबूझ पहेली……आपने अपने हिसाब से इसपर रौशनी डाली है, जो अति स्वागत योग्य है……..!
ये एक मनःसिथ्ति का उल्लेख है….हम अपने को पहचाने बिना दूसरों को बदलने की कोशिश करते हैं….अपने को भी खो देते हैं….हर घर में रिश्ता टूट रहा है…बड़े बड़े नाम हैं..कोई इंजीनियर…कोई डॉक्टर…..पर रूह (प्यार ) गायब है…ज़िन्दगी जैसे बस जी रहे….पर उम्मीद फिर भी बरकरार है….ज़िन्दगी इतनी अबूझ भी नहीं मेरे हिसाब से…हाँ सीधी तरह से जीना हमने खुद ही छोड़ दिया….मधुकरजी ने बहुत सही कहा की वैराग्य…हां पर संसार से पलायन का नहीं…संसार में रहते हुए खुद को समझ कर सजाने का…मैंने शेर ऊपर नीचे किये हैं और तारतम्य बिठाने के लिए….
आप का तहदिल से बहुत बहुत आभार…..
यथार्थ को बड़ी खूबसूरती से परिभाषित किया है आपने ………..वास्तविकता यही है …….बस अपना अपना समझने का तरिका भिन्न हो सकता हैा !!
वजनदार शब्दों के यक़ीनन आप बधाई के पात्र है बब्बू जी !!
आपके वचन प्रसाद सवरूप हैं……तहदेिल से बहुत बहुत आभार आप का….