घिसते रहे नदियाॅं तल में
जल प्रपात कितने सहे ।
बढ़ते रहे साथ में उनके
हम आघात कितने सहे ।।
मेरा ही तन टूटता रहा
मेरा ही दम घूटता रहा ।
पत्थर कंकड़ रेत वेष बदलकर
जाड़ा गर्मी बरसात कितने सहे ।।
मेरा ही षरीर बन गया व्यापार
षदियों से आज तक रहा लाचार ।
बेजान समझकर बेचते रहे हमें
बद से बत्तर हालात कितने सहे ।।
छत कभी दीवार में दबकर रह गये
उचें इमारतों में ऐसे जमकर रह गये ।
मंदिर मस्जिद गुरूद्वारा चर्च भ्रम है
उल्टी सीधी बात कितने सहे ।।
उच्च षिखर पर्वत ताज हमारा था
पूरे विष्व में ही राज हमारा था ।
हमने देखे है कहर जुल्मो षितम
कलियुग के कारामात कितने सहे ।।
अजंता एलोरा एलिफेंटा ने रूप निखारा था
मोहनजोदड़ो और हडप्पा हमें ही निहारा था ।
सिंधू धाटी मेरे ही तन पर बसा
फिर ये युग संताप कितने सहे ।।
मेरा घर उजाड़कर अपना घर बसाया
धरती से निकालकर कितना सताया ।
व्यथा मन की किस किस को सुनाउ
इंसान के पाप अब कितने सहे ।।
बी पी षर्मा बिन्दु
Writer :- Bindeshwar Prasad Sharma (bindu)
D/O Birth :- 10.10.1963
उत्कृष्ट रचना
‘फिर ये युग सन्ताप कितने सहे’
अति सराहनीय…
nice lines sharma ji
अच्छा चिंतन………………
सुन्दर …………..
Mahashay
Aap sabhi ka bahut bahut dhanyabad , Aap logon ki pratikriya bahut achha lag raha hai. Aap Mr, Arun kumar Tiwari, Mr. Mani, Mr. Shishir Madhukar , Mr. Abhijeet Sharma jee & brothers/sisters/etc sabhi ko mera pranam.
उम्दा रचना, कंकड़ पत्थर और रेत के माध्यम से जीवन के विभिन्न रूप को सजीव करती और मर्म बताती रचना…..
एक हास्य लिखना चाहता हूँ , आप मुझसे बहुत अग्रज है….यह आपके dob लिखने से पता चला…..पर आप्जा नाम ही आपकी पहचान है….!