शोर बहुत है आज की दुनिया में ना जाने क्यों?
साबित करना है कौन किससे बेहतर है और क्यों,
मंदिर-मस्जिद की आवाज़ों तक से, रूह कापती है ,
ज़िंदगी से परेशां इंसा को आज, नींद कहाँ आती है ?
होड़ लगी है आगे निकलने की पर क्यों और कितना?
दाव पर लगा है सब कुछ, बचा नहीं पास एक तिनका,
रिश्ते-नाते तो दाव पर लगते ही आये है, कई ज़माने से,
इंसानियत भी खो चुके है हम आज, दो रोटी कमाने में।
बेईमानी बनी ज़रुरत, ईमानदारी हुआ रिवाज़ पुराना है ,
पूछता नहीं कोई किसीसे पाया कहाँ से ये खज़ाना है ,
जितना अधिक धन, सफल उतने ही आप कहलाएंगे,
अज्ञानी हो कर भी ज्ञानी को, ज्ञान बाँट कर आएंगे ।
चेत मानव पहचान कौन है तू ,और किस लिए जन्मा है?
आवश्यकता से अधिक धन संचय, विष का घूट भरना है,
क्यों बांटता है कटुता परिजनों में धन सम्पदा दिखाकर?
बाँट दे ज़रुरत मंदों में, मानव-सेवा माधव-सेवा अपनाकर।
Mobile pe lekhak ka naam nahin aa raha hai…bahut khoob bhai….par kuch kuch jaanu pahchaani si lagti hai rachna…Jaise kuch pahle kahin padhi ho…shayad bhram hon ya bhaav Milte hon…beautifullllll…….
Very inspirational and suggesting introspection
satya vachan………….ati sunder
बहुत खुबसूरत रचना………….!