तेरे पल्लू से अब कच्चे दूध की गंध आती है
तुझे मालूम है मेरे नजर का दोष
और उसमे छिपी ईर्ष्या
शायद इसी लिए तू मुझसे
मेरे बच्चे को आंचल से चुराती है।
मुझे याद है जब तेरी नज़ारे
झुकती थी शर्म हया में
आज भी नजर वहीं है
पर उसे तेरी ममता झुकाती है
दौर वह भी था जब तेरा दिल
तडपता था मेरे एक दीदार के लिए
तू आज भी वहीँ है पर
मासूम की चन्द पलों की
बन्द किलकारी तुझे तडपाती है।
मै बाप बनके भी बाप न बन पाया
अनिर्णीत अनिश्चय में उलझ कर
तू तो साक्षात् देवी, ममता के साथ
पत्नी धर्म आज भी निभाती है।
न जाने क्यों एक अन्जाना भय
घेरे हुए है एक साये की तरह
जिसे कभी मेरी स्वेद महक भी
दूर न कर पाता था
आज वही अनायास बच्चे के पास
खिची चली जाती है!
मै तो आज भी उसी पल में जी रहा
हो वासना के वशीभूत
तू सच्चे अर्थो में नारी!
अपने आचल में दुधमुहे को समेटे
मेरे भी मस्तक पर हाथ फेरती
अपने प्यार को पति बच्चे में
अथेष्ट बाटती है।।।
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सुरेन्द्र नाथ सिंह “कुशक्षत्रप”
बेहतरीन चित्रण सुरेंद्र ……………… इसी विषय पर मेरी पूर्व में प्रकाशित रचना “स्त्री” भी पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया अवश्य भेजें.
अवश्य मधुकर सर…….आशीर्वाद हेतु धन्यवाद आपको….!
बहुत ही बेहतरीन………..
बब्बू जी शुक्रिया………!
स्त्री के रूपों का बेहतरीन चित्रण । हर रूप अपना धर्म निभाता है, फिर भी उसके साथ अन्याय हो जाता है ।
विजय जी धन्यवाद…….अपने बहुमूल्य विचार देने हेतु….
स्त्री के प्रेम और समर्पण का कोई तुल्य नहीं ही ……….आपने सुन्दर शब्दों के साथ जिस तरह से भावनाओ को अभिव्यक्त किया है ………आपकी सर्जनशीलता का प्रतीक है ………..उम्दा रचना सुरेन्द्र !!
बहुत खूब सुरेन्द्र जी सच में नारी ही है जो कितनी आसानी से कितने ही फ़र्ज़ निभा जाती है और उफ़ तक नहीं करती l सच में बहुत सुंदर रचना है l
बहुत खूब सुरेन्द्र जी बहुत सुंदर रचना है
सुन्दर रचना ………