तेरे शहर मे गुज़ारी थी मैने एक जिंदगी
पर कैसे कह दूं हमारी थी एक जिंदगी ||
जमाने से जहाँ मेने कई जंग जीत ली
वही मोहब्बत से हारी थी एक जिंदगी ||
मुझको ना मिली वो मेरा कभी ना थी
तुमने जो ठुकराई तुम्हारी थी जिंदगी ||
महल ऊँचा पर आंशु किसी के फर्स पर
तब मुझको ना गवारी थी एक जिंदगी ||
कलम की उम्र मे पत्थर उठा रही है
कितनी किस्मत बेचारी थी एक जिंदगी||
तेरे शहर मे गुज़ारी थी मैने एक जिंदगी..
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति……..खुबसूरत रचना……!
बहुत बहुत आभार सुरेन्द्र जी ..
शिवदत्त जी अंत में रचना भटकी सी लगती है.
बहुत बहुत आभार मार्ग दर्शन के लिए ..
अति सुन्दर …………………
धन्यवाद नीवतिया जी…
Beautiful………
sukriya………..