जाम, जाम, जाम, खड़े-खड़े विश्राम,
जाम की बीमारी कितनी हो गई आम ।
शहर-शहर की राह-राह हो गयी मशहूर,
नजदीक-नजदीक में रहती फैली दूर-दूर ।
सड़कें-गलियां संकरी वाहन हो गए ढेर,
चार फेर के तेल में सब चले एक ही फेर ।
बारिस, गर्मी हो या शीत की शीतलता,
मौसम के थपेड़ों में कष्ट पाती भौतिकता ।
एम्बुलैंस की रोशनी या साइरन की हो बात,
जाम चले अपनी गति, दिन हो या रात ।
कुछ का जीवन बच जाता जो ये करता विश्राम,
कितने बीमारों की कर दी इसने उम्र तमाम ।
विलम्बित कर्मचारियों को अधिकारी बांचें ज्ञान,
उनकी नाराजगी जैसे तलवार हो बिना म्यान ।
तेल का आयात बढता, रुपये का कीमत गिरता,
सब्सिडी का बोझ, अर्थव्यवस्था पर चोट करता ।
करते तुम विश्राम, सबको मिलता आराम,
परिवहन का खर्चा बचता, घटता सामान का दाम ।
वायु में विष घोलते, बीमारी फैलाते सरेआम,
जाम, जाम, जाम, तेरा बस यही काम ।
विजय कुमार सिंह
व्यवस्था पर कटाक्ष करती सुन्दर रचना …!!
विजय जी, वर्तमान परिस्थिति में जाम की समश्या के इर्द गिर्द ताना बाना बुनकर आपने बहुत खूबसूरती से व्यवस्था पर कटाक्ष किया है……!
Thanks a lot.
वाह…अति उत्तम….
Thanks a lot.