बारिश थमने का थोड़ा इंतज़ार कर लो,
छतरी को फैलाकर तार-तार कर लो,
हवाओं और फुहारों को भी लिपटने दो,
खुद को खुद में ही थोड़ा और सिमटने दो,
जल की धारा पाँव छूने को बेताब है कितनी,
हौले-हौले तुम उसे पांवों से छलकने दो ।
दिल के भावों को लेखनी का सहारा है, समाज को बेहतर बनाना कर्तव्य हमारा है. आइये आपका स्वागत है हमारे लेखन के दरबार में, पलकें बिछाए बैठे हैं हम आपके इंतज़ार में.
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पटना, बिहार
6 Comments
Shishir "Madhukar"08/06/2016
Vijay I have modified your poem as under look at it then comment
बारिश थमने का थोड़ा इंतज़ार कर भी लो,
प्यासी धरा की ख़ुशी का दीदार कर भी लो
इन हवाओं और फुहारों को भी अंग लगने दो
मीठी सिहरन को इस बदन में थोड़ी जगने दो
जो भी बूंदे तेरे कोमल तन पर बिखर जाएंगी
उनकी किस्मत तो हमेशा को निखर जाएंगी.
Vijay I have modified your poem as under look at it then comment
बारिश थमने का थोड़ा इंतज़ार कर भी लो,
प्यासी धरा की ख़ुशी का दीदार कर भी लो
इन हवाओं और फुहारों को भी अंग लगने दो
मीठी सिहरन को इस बदन में थोड़ी जगने दो
जो भी बूंदे तेरे कोमल तन पर बिखर जाएंगी
उनकी किस्मत तो हमेशा को निखर जाएंगी.
विजय कुमार सिंह
nicely modified sir, एक भाव दो लेखनी ।
very nice vijay ji
बहुत-बहुत धन्यवाद ।
विजय जी बहुत अच्छे…
वआह क्या बात है मधुकर जी….क्या रूप निखारा है आपने…वाह…..
बहुत-बहुत धन्यवाद ।