रुक सा गया हूँ कुछ थम सा गया हूँ
वक़्त के हालातो से करने दो दो हाथ
जिंदगी की पहेलियों को देने को मात
उगते सूरज से अब शाम की तरह ढल सा गया हूँ !!
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डी. के. निवातियाँ [email protected]
रुक सा गया हूँ कुछ थम सा गया हूँ
वक़्त के हालातो से करने दो दो हाथ
जिंदगी की पहेलियों को देने को मात
उगते सूरज से अब शाम की तरह ढल सा गया हूँ !!
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डी. के. निवातियाँ [email protected]
माफ़ कीजियेगा मित्रो, व्यस्तता के कारण आप सभी कविजनो की रचनाओं का लुफ्त नहीं उठा पा रहा हूँ ……बहुत जल्द आप लोगो के साथ गुफ्तगू कर करूँगा !!
आखिर आदमी की भी तो लड़ने की सीमा है. लेकिन रात के बाद सूरज को फिर निकलना है.
u r right shishir ji …thanks.
दो दो हाथ करते करते ही जिंदगी की सुबह से शाम हो जाती है. सत्य है निवातियाँ जी. सुन्दर रचना.
सत्य कहा विजय जी ………बहुत बहुत धन्यवाद आपका !!
ज़िन्दगी की कश्मकश…यथार्थ का चित्रण चंद शब्दों में….अति उत्तम….
बहुत बहुत धन्यवाद बब्बू जी !!
बहुत ही प्यारी लाइन्स लिखी है निवित्य जी “वक़्त के हालातो से करने दो दो हाथ” बहुत खूब l
बहुत बहुत धन्यवाद राजीव जी !!