शिक़वा हमें ग़ैरों से नहीं बल्कि अपनों से है
जो अपने न हो पाये उन बेगाने सपनों से है।
अपना समझकर जिन्हें आंखों में बसाया
उन्हीं सपनों से देखो आज कितना रुलाया।
कैसे बताऊं दिल को ये अपने नहीं होते
गर अपने हो पाते तो ये सपने नहीं होते।
आरज़ू में इनकी बहुत कुछ मैंने खोया है
टूटने की कसक में इनकी दिल फिर रोया है।
खाली इस दिल में तन्हाई का अब डेरा है
आज भी इसे उसकी यादों ने क्यों घेरा है।
वीरां इस दिल में तन्हाई ही अब रहती है
चुपचाप अपनी दास्तां खुद से ही कहती है।
खामोश ये नजरें अब भी उसे ही ढूंढती हैं
काफ़िर ये निगाहें मेरी भी कहां सुनती हैं।
अति सुंदर भावयुक्त रचना लक्ष्मी
aapke lagatar protsahan ke liye dhanyvad shishir ji
एक ही शब्द कहूंगा “लाजवाब”
Rajiv ji prashansa ke liye shukriya
very nice……………………….!!
Thanks D.K. ji
अति उत्तम …..क्या बात है….
खामोश ये नजरें अब भी उसे ही ढूंढती हैं
काफ़िर ये निगाहें मेरी भी कहां सुनती हैं।
rachna ki sarahana ke liye dhanyvad sharma ji
खूबसूरत रचना ।
काफ़िर ये निगाहें मेरी भी कहां सुनती हैं।
आप स्त्री लेखन में विशेष रूचि रखती हैं इसलिए मेरा अनुरोध है की एक बार “मुझे मत मरो (बेटी)” एवं “मुझे स्वर दो, मैं बोलूंगा” अवश्य पढ़ें ।
खूबसूरत रचना ……….