तमाम उम्र पर्दे का शोर उठता रहा,
हुजूर आए भी बेपर्दा और जायेगे भी बेपर्दा ।
बड़ी महीन है बुनियाद इस लिबास की
बाज दफा इक सरसराहट भी मिटा देती है पर्दा ।।
शर्मसार नही हो गर अपनी गुस्ताखियों पे
तो फिर चट्टान होकर भी बेबुनियाद है पर्दा ।
गुजरता हूँ आज भी तेरी ही गली से
कभी आँखों का था पर्दा आज खिड़कियों पे है पर्दा..
Sundar Kavita
सुंदर गहराई युक्त रचना…………
अति उत्तम…क्या शब्दों के जाल में जीवन के परदे को बेपर्दा कर दिया….वाह…
बहुत बहुत आभार ……………..
सुशील जी आप जिस गहराई से कविता लिखते है उसको मेरा प्रणाम l सच बहुत अच्छा और सच्चा लिखते है आप l
धन्यवाद …..
बहुत बहुत आभार ………….