चलो हम कहीं चलते हैं,
किसी सफर पर निकलते हैं,
जमाना प्यार का दुश्मन,
जहाँ के पार चलते हैं ।
निशां अपने बना देना,
सफर की राह दिखा देना,
जो आना चाहे कोई पथ पर,
पता अपना बता देना ।
सिमट जाना तुम बिंदु में,
मुझे खुद में छिपा लेना,
वक़्त से तेज चलकर तुम,
प्यार की उम्र बढ़ा देना ।
कभी कोई तो ढूंढेगा,
सितारों में भी खोजेगा,
हाथ अपना हिला देंगे,
वहीँ से झिलमिला लेंगे ।
मौसम यहाँ भी बदलेगा,
जमाना प्यार समझेगा,
नया कोई रूप रखकर हम,
खुद को आजमा लेंगे ।
विजय कुमार सिंह
विजय कुमार जी बहुत ही खुबसूरत कविता हैयह, ऐसी रचना जो आपके लेखनी से निकली है उसके तारीफ में मेरे पास अल्फाज नहीं।
रचना पसंद आने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ।
खूबसूरत रचना. लेकिन विजय अंत में लय कुछ गड़बड़ा गई है. यदि मेरे सुझावनुसार निम्न लाइनों का प्रयोग करो तो कैसा रहेगा?
नया कोई रूप रखकर हम,
खुद को वापस बुला लेंगे ।
आजमा के स्थान पर वापस बुला प्रयोग किया है
सर, आपके सलाह के लिए धन्यवाद लेकिन मेरा लिखने का तात्पर्य नए रूप में प्यार उतना ही गहरा है या नहीं इसलिए मैंने आजमाने की बात लिखी है ।
अप्रतिम…..सलाम….
धन्यवाद. “मुझे स्वर दो” भी पढ़ें.
क्या खूब लिखा आपने. एक भ्रम ऐसा भी हो जिसमें सिर्फ तू आये…
विजय जी बहुत ही खुबसूरत रचना लिखी हैै ………….
धन्यवाद.
बहुत सुंदर विजय जी।