सिसकती हुई वो आवाजेंl
चीख-चीख के कह रही l
माँ अब तु मुझे बचा ले l
दहेज़ अग्नि में दहक रही ll
जन्म लिया क्या गलती की ?
परायो को भी अपना लिया l
चंद कागज़ के टुकड़ो खातिर l
मुझसे कैसा ये बदला लिया ll
कहाँ गये, वो सात वचन ?
निभाने का जो वादा किया l
वादे की थी,वो साक्षी अग्निl
उसी के हवाले मुझे किया ll
करती थी मन से उनकी सेवा l
ना कभी मैंने कोई शिकवा की l
फिर क्यों लालच के भेडियो ने l
मार-मार के मेरी ये हालत की ll
इसकी तुम भी हो, दोषी माँ l
जो चाहा वो तुमने इन्हे दिया l
और बढ़ता गया इनका लालच l
तभी आज इन्होने ऐसा किया ll
माँ नहीं होता अब मुझसे सहन l
मुझको तू ,अपने पास बुला लेंl
नहीं चाहिए मुझे तुझसे कुछ भी l
बस इन भेडियो से मुझे बचा लें ll
हाथ जोड़ कर करती हू विनती l
आओ मिलकर ये कदम उठाये l
करें ब्याह उन्हीं से अपनी बेटी l
जो बिन दहेज़ के ब्याह रचाये ll
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अंतिम पद लाजवाब है लेकिन समाज को इसको लागू करने के लिए ईमानदारी से आगे आना होगा
शिशिर जी कविता साराहने के लिये आपका बहुत-बहुत धन्यवाद
आपकी रचना सुन्दर है किन्तु दहेज़ बेटी के ब्याह से सम्बंधित अधूरी कहानी ही प्रस्तुत करता है, दूसरा हिस्सा लड़की के मायकेवालों के द्वारा उसका कानूनी अधिकार न दिया जाना भी है, जिसके कारण कानून होने के बावजूद दहेज़ प्रथा समाज में उसी तरह छाई है ।
भारत के कुछ राज्यों में दहेज़ निश्चित ही अच्छी बात नहीं, वैसे मै आप लोगो को बता दू की पूर्वोत्तर भारत विशेषकर असम और उसके सात बहन बोले जाने वाले किसी राज्य में दहेज़ प्रथा नहीं है। गहराई से विवेचना करने पर मैंने पाया की यहाँ बेटी की शादी में वह मापदंड भी नहीं जो उत्तर भारत में है। मसलन उत्तर भारत में लड़की की शादी में कमाऊ और नौकरी वाले या व्यापार जगत में नाम कमाने वाले रईस लडको की तलाश की जाती है जब की हमारे यहाँ(असम) में ऐसा कतई नहीं। सामान्यतः प्रेम विवाह होता है और लड़की की पसंद को ही तबज्जो दिया जाता है। प्यार करने वाले की शादी बिना किसी भेदभाव होता है। दूसरा जो पहलू मैंने पाया वह जातिगत है। पूर्वोत्तर भारत में अपनी ही जाति में शादी की सामाजिक बाध्यता नहीं है। शादी के बाद लड़के और लड़की की title वाही रहती है पर उनके बच्चो की टाइटल माँ से निर्धारित होती है। दुसरे शब्दों में कहे तो माँ की सत्ता रहती है यहाँ। उत्तर भारत में लड़की के पिता की अति महत्वाकांक्षा भी दहेज़ के लिए कही न कही उत्तर दाई है।