प्रेम
मनुष्य ही नहीं
जगती के प्रत्येक चराचर में
एक समान पाया जाने वाल तत्व
मुझे भी हुआ था शायद किसी से
कभी
तब,
उसकी यादें करती परेशान
पर मन बेईमान
करता न ध्यान
बार बार वहीँ जा गिरता
मै भी शायद, विचलित होता
अकेले में रोता
मन बार बार खाए गोता
मै रहता,
शांत- अचंचल
अकिंचन
औ परेशान
मन उसी में सोता ,करता बिहान
तब लगा,
मै निर्माही, कहीं मोह में फंस गया
शायद प्रेमदंश धंस गया
मै रहने लगा अन्जान
समाज से, परिवेश से
तभी,
रोक लिया किसी ने मुझे हिलता देख कर
डर था उसमे गगन को क्षितिज से मिलता देखकर
उसमे चाह थी,
मुझमे कुछ देखने की,
चाह थी की मै बनू महान,
बनू सांस्कृतिक जबान
सूरज करे सलाम..
सो,
थम गया वो ज्वार
और, मै मान गया,
क्योंकि
उससे भी मुझे प्रेम था.
—निर्मल कुमार पाण्डेय
प्रेम में बड़ी ताकत है. अच्छा लेखन
सुन्दर……………..
Bohat achha likha hai bhaiya.